समझ आया तो खुद को
लालू राज में पाया....।
लालू चालीसा,
माय समीकरण,
विकास करने से वोट नहीं
मिलता.... जैसी
बातें फिजा में गूंजा करतीं।
डीएम-एसपी
से मुख्यमंत्री पांव छुआते..।
रेप, लूट,
मर्डर,
किडनैपिंग...
जैसी बातें इटरटेनमेंट की
घटनाएं होतीं..।
अगड़ी जातियों और पिछड़ी
जातियों के बीच खूना-खच्चर,
समाज में तनाव ऐसा कि दूसरे
को देखते ही खा जाने को दौड़े...।
राजनीति में अपराध अपने चरम
पर, रंग-बिरंगे
अपराधी और नेता कुकुरमुत्ते
की तरह सड़कों पर फैले हुए
थे..। किसी
के पीछे माय की मजबूरी थी...
तो किसी के पीछे बाप का हाथ
था...।
सड़कों से गायब होते जा रहे थे सड़क, बचे थे तो सिर्फ गडढ़े और उनमें भरे कीचड़। कल-कारखाने जो भी थे बंद होते जा रहे थे... कंपनियों के शो रूम लूटे जा रहे थे...। स्कूल से छात्र दूर भागते जा रहे थे... क्योंकि पास होने के लिए ना तो स्कूल जाना जरूरी था और ना ही पढ़ाई करना। और फिर पढ़ के होना भी क्या था...। ना तो छात्र स्कूल जाते और ना ही अध्यापक...। घर में बैठे-बैठे सबकुछ हो जाता...। छात्रों के पास पढ़ाई नहीं, जाहिर है काम भी नहीं... तो अपराध की ओर रुझान पढ़ता गया...। फिर अपराधियों का बनता हेडलाइन्स, पैसा और नाम कमाने का आसान जरिया सुझा रहा था ।
जो इन चीजों को
बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे....
वे बहुत तेजी से पलायन करते
जा रहे थे... ।
मुंबई, पूने,
दिल्ली,
कलकत्ता,
लुधियाना,
जालंधर, सूरत,
अहमदाबाद...
जिसे जहां जगह मिल रहा था...
वहीं पर खुद को खपाता जा
रहा था। दूसरे राज्यों में
खेत, कंस्ट्रक्शन,
फैक्ट्री तक में बिहारी
मजदूर अपनी तकदीर संवारने की
कोशिश में खुद को खपाते जा रहे
थे।,
राजस्थान और दक्षिण राज्यों
में जाकर छात्र इस दौरान लगातार
अपने भविष्य को संवारने के
लिए जूझ रहे थे...।
एक तो घर से दूर रहने की पीड़ा,
पैसों की कमी और ऊपर से दागी
या फिर बदनाम राज्य के होने
से मिलने वाले ताने....
छात्रों की जिंदगी को कठिन
कर रखा था.
दिल्ली
दिल्ली
कुल मिलाकर घटाटोप
अंधेरा... चारो
ओर...। रोशनी
की एक भी किरण नहीं...।
यह एक विनाश चक्र था...।
कहीं से भी शुरुआत करो...
अंत में फिर अंधेरा..।
लेकिन इस अंधेरे में भी कुछ
लोग थे जो लगातार अंधेरे को
चीरने का प्रयास कर रहे थे।
वे अंधेरे के साम्राज्य को
तोड़ने के लिए जीतोड़ प्रयास
कर रहे थे..।
और फिर चक्र चलते-चलते
ऐसी जगह पहुंचा...
जहां से बंद गवाक्षों के
पट खुलते दिखे...।
उम्मीद की किरणें सर उठाने
लगीं...। सरकार
बदली... सत्ता
में बदलाव हुआ तो लगा कि व्यवस्था
भी बदलेग...।
कुछ हद तक बदली भी...।
लेकिन पीछले कई
दशकों में कहीं कुछ ऐसा जरूर
नष्ट हो गया था....
जो बदलाव के बाद भी चीजों
को संवरने या फिर सामान होने
नहीं दे रहा था। ऐसा लग रहा
मानो प्रदेश का स्पर्म ही
दूषित हो गया हो...
धरती शापित हो गई हो..।
तमाम प्रयासों के बाद भी कुछ
अच्छा नहीं हो पा रहा...।
जब लग रहा था कि
कुछ ठीग होगा..।
एक व्यक्ति ने अपने अहंकार
की वजह से सबकुछ नष्ट कर दिया...।
ऐसा लग रहा है कि जैसे पानी
भरे बाल्टी को कुएं से आधा
निकालने के बाद रस्सी क साथ
ही बीच रास्ते छोड़ दिया गया
हो...। और बाल्टी
पानी में डूब गया हो..।
ऊपर निकालने की संभावना
क्षीण...।
प्रदेश का मुख्यमंत्री
एक ऐसे व्यक्ति को बना दिया
गया..... जिसके
साथ सहानुभूति सिर्फ उसकी
जाति की वजह से हो सकती है..।
जिसने हमेशा शोषण का दंश झेला
है...। लेकिन
क्या किसी शोषित को सिर्फ
इसलिए 10 करोड़
लोगों के भाग्य का विधाता बना
दिया जाए...क्योंकि
उसके पूर्वजों के साथ कभी शोषण
हुआ था.., क्योंकि
वह समाज के सबसे कमजोर वर्ग
से आता है...।
लेकिन कोई क्या यह बताएगा कि
बाकि लोगों की क्या गलती है...
वह क्यों सजा पाए...???
कुछ बानगी देखिए.....
राज्य सूखे से
कराह रहा है...
किसान त्राहिमाम कर रहे
हैं... और प्रदेश
के अधिकारी आंखों पर काला
चश्मा लगाए मुख्यमंत्री को
सावन की हरियाली दिखा रहे
हैं..। हद तो
यह है कि मुख्यमंत्री सब जानते
हुए कुछ नहीं कर पा रहा...।
मुख्यमंत्री लाचार,
बिमार और बेचारा बना हुआ
है।
मुख्यमंत्री किसी
मंदिर से बाहर आता है और फिर
उस मंदिर का शुद्धिकरण किया
जाता है....
मुख्यमंत्री व्यवस्था की
दुहाई देता है..।
मंत्री मजे लेता है...।
लानत क्यों न हो ऐसे मुख्यमंत्री
पर जो अपनी रक्षा खुद न कर
सके...। ऐसा
मुख्यमंत्री दस करोड़ लोगों
की रक्षा कैसे कर पाएगा..।
एक मुख्यमंत्री
राज्य के सबसे बड़े अस्पताल
जाता है...।
कुव्यवस्था देखकर अस्पताल
के सबसे बड़े अधिकारी को बुलाता
है... लेकिन
अधिकारी आने से मना कर देता
है...। अधिक
संभावना है कि उस अधिकारी का
कुछ नहीं बिगड़ेगा...
अब बताइए,
क्या आपको कोई रोशनी दिख
रही है???? नहीं
दिखेगी... यहां
सबसे निराशा की बात यह है कि
आम जनता तक उस विनाश के दुष्चक्र
का हिस्सा बन कर रह गई है...
उसे आप निकालना चाहें तो
वो खुद ना निकलें...।
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