Wednesday, October 2, 2013

यह भी संभव है

इधर के वर्षों में बिहार की राजनीति का दो सबसे बड़ा उलटफेर -- नितीश का बीजेपी से सम्बन्ध तोड़ना और लालू यादव के जेल जाने को माना जा सकता है। इन दोनो घटनाओं ने बिहार की राजनीतिक परिस्थितियों को कुछ ऐसा बदला है कि बड़े बड़े विश्लेषक भी कुछ साफ नहीं कह पा रहे हैं।


बहरहाल आइए देखते हैं क्या है बिहार की राजनीति की उलझनें । कौन से पेंच हैं जिसे विश्लेषक भी नहीं समझ पा रहे हैं

नितीश धीरे-धीरे कांग्रेस के नजदीक जाते दिख रहे हैं, ये अलग बात है कि जेडीयू अध्यक्ष शरद यादव कांग्रेस विरोध का झंडा उतनी ही मजबूती से थामे हुए हैं।

पिछले चुनाव तक करारी हार के बाद भी लालू का एमवाई समीकरण कहीं दरकता नहीं लगा था, केवल विरोधी मत बीजेपी-जेडीयू की तरफ एक तरफा चली गई।

क्या करेंगे मुसलमान : पिछले दो दशकों से लालू यादव मुसलमानों का वोट एकतरफा पाते रहे हैं। लेकिन अब बदली हुई परीस्थितयों में वे लालू के साथ बने रहेंगे, यह एक बड़ा सबाल है। दोस्त से दुश्मन बने लालू और नितीश की पार्टी अगर इसी वोट के लिए राज्य में उलझते दिखे तो बड़ी बात नहीं होगी। 
 
नरेन्द्र मोदी के नाम पर नितीश बीजेपी के साथ अपने 17 साल पूराने संबंधों को तिलांजली दे चुके हैं। इधर कांग्रेस भी लालू से दूरी बना रही है, राहुल गांधी दागी नेताओं को बचानेवाले अध्यादेश को फाड़ने की बात से यह जता चुके हैं। लालू यादव के जेल जाने के बाद कांग्रेसी नेताओं के बयान से भी यह लगता है कि कांग्रेस का ऑफिशियल लाइन अब लालू से दूरी बनाना है।

वहीं नीतीश कुमार का कांग्रेस से बढ़ता नयन मटक्का भी अब छिपा हुआ नहीं है। आनेवाले चुनाव में जबकि नरेन्द्र मोदी के मुकाबले लालू यादव को कमजोर पड़ता देख, मुसलमान कांग्रेस को मजबूत करने के लिए नितीश कुमार का हाथ थाम सकते हैं।

राजद का समीकरण : लालू आज भी यादवों के नीर्विवाद नेता है। यादव वोट लालू की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल से दूर हो जाए, इसकी संभावना नगण्य ही है। लेकिन केन्द्र की बदलती राजनीति की वजह से लालू यादव की पार्टी राजद को मुस्लिम वोटों का नुकसान उठाना पड़ सकता है। 'एमवाई' में से 'एम' के छिटकने से राजद को बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है। 
 
इसके पास रघुवंश प्रसाद सिंह, प्रभुनाथ सिहं, जगदानंद सिंह जैसे अगड़ी जातियों के नेता तो हैं लेकिन इनका नाम राजद को इनके प्रभावक्षेत्र से अलग इलाकों में कोई फायदा पहुंचा दे इसकी संभावना कम ही है।

रामविलास पासवान : लालू के साथ अभी तो खड़े हैं रामविलास पासवान लेकिन जिस तरह का उनका रिकॉर्ड रहा है और जिस तरह से ये अपने पुत्र को अपनी विरासत का हस्तांतरण करने में व्यस्त हैं, कब यह लालू का साथ छोड़ दें कुछ कहा नहीं जा सकता। एक अच्छा मौका इनके सामने आने दीजिए, रामविलास पासवान का स्टैंड साफ हो जाएगा।

सिर्फ अपने पेटेंट समर्थक जाति के बल पर चुनाव नहीं जीता जा सकता है, यह बात रामविलास अब समझ चुके हैं इसलिए इनका जोड़ इस बात पर रहेगा कि किसी मजबूत पार्टी के साथ समीकरण बन जाए। इनके दलित वोटों में सेंध लगाने के लिए नितीश जहां महादलित राजनीति पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं, वहीं एक मायावति फैक्टर भी है।

 बीएसपी प्रत्येक अगले चुनाव में अपना वोट प्रतिशत बढ़ाते जा रही है। रामविलास, नितीश को मायावति के बढ़ते वोट प्रतिशत का नुकसान हो सकता है।

नीतीश कुमार : संकट की घड़ी नितीश कुमार के लिए है। पार्टी सत्ता में है, इसे सत्ता में बनाए रखना बड़ी चुनौती है। जिस तरह से अपने साथियों को नितीश ने एक-एक कर ठिकाने लगाया उसका असर आने वाले समय में देखा जा सकता है। बीजेपी से अलग होने पर पार्टी में कैसी झुंझलाहट थी इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि नितीश को धर्मनिर्पेक्ष राजनीति का प्रतीक बनाने का प्रयास करने वाले शिवानंद तिवारी को पार्टी ने तुरत बाद अलग-थलग कर दिया। अब बेचारे को कोई पूछता भी नहीं। आपको याद हो कि यह शिवानंद तिवारी ही थे जिन्होने जेडीयू और बीजेपी के बीच खाई बनाने का काम किया।

जाति पर आधारित बिहार की राजनीति में नितीश कुमार के पास किसी विशेष जाति समूह का समर्थन नहीं है। बिहार में लालू के समय से बीजेपी विपक्षी ताकत का प्रतीक रही थी। लालू से अलग होने के बाद नितीश-जॉर्ज की जोड़ी संघर्ष तो कर रही थी लेकिन लालू को असली टक्कड़ बीजेपी से मिलता था।

बहरहाल केन्द्र में शासन करने की गरज से बीजेपी ने नितीश को आगे कर दिया। लालू की नौटंकियों से त्रस्त अगड़ी जातियां और मध्यम वर्ग के लोग बीजेपी के मार्फद बीजेपी-जेडीयू में ट्रान्सफर हो गया। नितीश के दरबारियों ने इसे जेडीयू का पॉकेट वोट बैंक करार दे दिया। इससे किसी को इनकार नहीं होना चाहिए कि नितीश ने बदलाव लाया है। लेकिन आम जनता बेहतर चाहती है और कोई जरुरी नहीं कि इसके लिए वो एक पार्टी के पीछे हमेशा खड़ी रहे। यह लालू विरोध की हवा, जातियों का समीकरण और कुछ नितीश के कार्य भी थे जिससे एनडीए गठबंधन और मजबूत होता चला गया। 
 
अब जबकि बीजेपी सरकार से अलग हो गइ है, नितीश कुमार को अगड़ी जातियां, मध्यमवर्ग, आदि का वोट खोने का डर सता रहा है। वे कुर्मी, कोइरी, और मुसलमान वोट को अपना कह सकते हैं जिसके लिए कई वर्षों से कोशिश करते रहे हैं। हां महादलित वोट जिसके लिए वो सत्ता में आने के बाद से ही लगातार प्रयास कर रहे हैं, कितना उनके साथ खड़ा होता है यह देखने की बात होगी। 
 
कांग्रेस : पिछले कई चुनावों की तरह बिहार में कांग्रेस एक बार फिर पाने-खोने के मायाजाल से ऊपर है। पार्टी के पास खोने के लिए राज्य में कुछ नहीं है, अपने दम पर कुछ पा ले इसकी भी संभावना भी कम है। ऐसे में पार्टी नितीश पर दांव लगा सकती है कि कम-से-कम जरुरत पड़ने पर नितीश के सांसदों का सहयोग केन्द्र में लिया जा सके। यह बात दीगर है कि नितीश के सांसद आने वाले समय में शायद ही नितीश की सुने। क्योंकि नितीश ने जिस तरह से पार्टी और सरकार को मनमाने तरीके से चलाया उससे जेडीयू सांसद बहुत खुश नहीं है। आनेवाले समय में अगर एनडीए की तरफ कुछ संभावना बनती है तो कोई आश्चर्य नहीं अगर नितीश के सांसद शरद के साथ फिर से एनडीए में जा मिलें।


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