Thursday, December 8, 2016

क्यों टाटा के रतन से आंखों का कांटा बन गए मिस्त्री




हम साथ-साथ थे
जो लोग कॉरपोरेट इंडिया को नजदीक से फॉलो करते हैं उनके लिए साइरस मिस्त्री का टाटा संस का चेयरमैन नियुक्त होना कल की ही बात है। रतन टाटा ने महीनों तो साइरस मिस्त्री को राजनेताओं से मुलाकात करवाने में बिता दिए। अखबारों में बड़ी-बड़ी तस्वीरें छपती थी। रतन टाटा साइरस मिस्त्री के  साथ फलां-फलां नेता से मिलने  जाते हुए.. कभी आते हुए। 


वजह साफ थी... लोगों का जो सपोर्ट टाटा संस को मिल रहा था... वो रतन टाटा के जाने के बाद और साइरस मिस्त्री के आने के बाद भी जारी रहे। ताकि साइरस मिस्त्री सफलतापूर्वक टाटा संस की लीगेसी को बढ़ाते रहें। 


PM के साथ टाटा और मिस्त्री

लेकिन कुछेक वर्षों में ही सबकुछ बदल गया। टाटा और मिस्त्री एक-दूसरे के कारोबारी खून के प्यासे हो गए। 

 ब्रांड का पर्याय है टाटा। सबकुछ बदल गया लेकिन लोगों का टाटा से भरोसा कभी नहीं बदला। मीडिया में बड़े वाक्यांस बने हैं टाटा संस के लिए.... सूई से लेकर सॉफ्टवेयर तक बनाने वाली कंपनी या फिर नमक से लेकर जहाज तक बनाने वाली कंपनी जो सम्मान, स्नेह और रुतबा टाटा ब्रांड को हासिल है.... देश की सबसे बड़ी कंपनी रिलायंस आस-पास कहीं नहीं है। कभी किसी विवादों में नहीं रही यह कंपनी। लेकिन फिर अचानक क्या हो गया कि यह कपनी विवादों में ही नहीं उलझी बल्कि मीडिया में बयानो को देखे तो ऐसा लगता है रतन टाटा और साइरस मिस्त्री में से एक के बर्बाद होने के बाद ही यह जंग समाप्त होगी। 
 
मिस्त्री को झारखंड के तत्कालीन सीएम अर्जुन मुंडा से मिलाते टाटा

इकोनोमिक्स टाइम्स की एक रिपोर्ट की माने तो सायरस मिस्त्री ग्रुप उडीशा में विधानसभा चुनाव के लिए चंदा दना चाहता था। जबकि टाटा समूह हमेशा से सिर्फ संसदीय चुनाव के लिए फंडिग करता था। यह बाद रतन टाटा को बहुत नागवार गुजरी। 

एक डिफेंस कॉन्ट्रेक्ट हासिल करने के लिए साइरस की अगुवाई में टाटा सस ने अपनी दो कंपनियों की ओर से दो बोली लगाई। जबकि रतन टाटा पूरे समूह की ओर से सिर्फ एक बोली चाहते थे। 

कहा जाता है कि रतन टाटा के सबसे प्रिय प्रोजेक्ट नैनो को साइरस बंद करना चाहते थे.. रतन टाटा को इस पर कड़ी आपत्ती थी।  टाटा-डोकोमो विवाद को जिस तरीके से मिस्त्री ने हैंडल किया रतन टाटा उससे भी नाराज थे। इसके अतिरिक्त जिस तरह से मुंबई में बैठे-बैठे मिस्त्री मजदूरों के मामले को देखते थे टाटा उससे खुस नहीं थे। टाटा चाहते थे कि यह समूह मजदूरों के मेहनत से बना है और इसलिए समूह के मुखिया को वर्करों के बीच में जाकर उनके मामलों को देखना चाहिए।