नतीजा आने
से पहले इस तरह का लिखना एक बड़ा खतरा होता है...।
आपको एक का पक्ष लेने का आरोपी
ठहराया जा सकता है.. लेकिन
अपनी नजरों से जो दिखे.. उसे
लिखने से अगर कोई आरोप लगे तो
वो शिरोधार्य है...।
महाराष्ट्र
से इस बार मराठी साफ हैं..।
(माफ करें महाराष्ट्र
के आम जनता) मैं उन
मराठियों की बात नहीं कर रहा
जो इस उम्मीद से वोट देते हैं
कि हालात बदलेंगे..।
मैं उन मारठियों की
बात नहीं कर रहा जो दिन भर इस
उम्मीद से मेहनत करते हैं कि
उनके बच्चे हमेशा सबसे आगे
रहेंगे, मैं
उन मराठियों की बात नहीं कर
रहा... जो
इस उम्मीद में मेहनत किए जाते
हैं कि उनके बच्चे खेल कूद कर
सबसे आगे बढ़ें...।
मैं उन मराठियों की बात भी
नहीं कर रहा जो दिन भर खेतों
में लगे रहते हैं.. इस
उम्मीद से कि वे सबसे आगे
रहेंगे..।

इतिहास
उलट के देखिए... मराठियों
की बहादुरी और जिंदादिली आपको
देश में सबसे ऊपर दिखेगा..।
लेकिन दिक्कत तब से शुरू हुई
जब से उन बहादुरी और जिंदादिली
को बेईमान नेताओं ने बुजदिली
में बदल दिया..।
उन बहादुरी का इस्तेमाल सिर्फ
निर्दोषों को पीटने में लगाया
गया...।
ताकत का इस्तेमाल सकारात्मक
दिशा में होने के खतरे को महसूस
करते देख उसे निर्दोषों के
खिलाफ मोड़ दिया गया...।

बात
करते हैं शरद पवार की...।
जरा किताब पलट कर देख लीजिए..
। सोनिया गांधी
के खिलाफ विदेशी मूल का होने
के मसले पर पवार के विरोध को
याद कीजिए..।
पूराने कांग्रेसी शरद पवार
का पार्टी नेतृत्व के खिलाफ
विद्रोह का यह पहला मामला नहीं
था..। 36 साल की उम्र में पहली बार महाराष्ट्र का मुख्यंत्री बने शरद पवार
कभी कांग्रेस नेतृत्व के काबू
में नहीं रहे...।
अपनी अपार नेतृत्व क्षमता का
उपयोग उन्होंने सिर्फ अपनी
राजनैतिक महत्वाकांक्षा को
पूरी करने और अकूत संपत्ति
को इकट्ठा करने में किया...।

थोड़ा
पीछे चलें...।
लोकसभा चुनाव 2014. दोनो
चचेरे भाई मोदी की तारीफ में
लगे थे..।
हालांकि उन्हें उम्मीद नहीं
थी.. लेकिन
बीजेपी की सफलता ने उन्हें
आश्चर्यचकित कर दिा...।
और फिर लोकसभा चुनाव आया...।
दशकों
से महाराष्ट्र की राज्य राजनीति
में पवार और ठाकरे के खिलाफ
कोई मुंह नहीं खोल पाता था...।
पहली बार ऐसा लगा कि राज्य की
राजनीति में इनकी भूमिका नगण्य
होती जा रही है...।
हार
को आसन्न देख शरद पवार ने अपनी
पार्टी का गठबंधन कांग्रेस
से तोड़ दिया..।
इस गठबंधन को तोड़ना तो बहाना
था.. । शरद
पवार दरअसल एक अव्वल दरजे के
व्यापारी हैं.. असली
व्यापारी सत्ता से कभी दूर
नहीं होता सो भाजपा से गठबंधन
बढ़ाने की चाहत में उन्होंने
कमजोर होते जा रही कांग्रेस
को अलविदा कह दिया...।
मतलब राज्य की राजनीति में
पवार की भुमिका नगण्य...।
शिवसेना इस उम्मीद में थी कि
भाजपा अंत में उनकी शर्तों
को मान लेगी... लेकिन
नरेंद्र मोदी की सफलता से झूम
रही भाजपा... अब
शिवसेना को छोड़कर भी अपने
लिए राज्य में एक सुखद भविष्य
देखने लगी...।
प्रमोद
महाजन और गोपीनाथ मुंडे के
असामयिक निधन से राज्य में
भाजपा को काभी चोट पहुंचा..।
और पार्टी में स्थानीय प्रभावशील
नेता का अभाव हो गया..।
लेकिन नरेंद्र मोदी के उदय
ने राज्य भाजपा को उम्मीद की
एक रौशनी दे दी... और
पहली बार ऐसा लगा कि महाराष्ट्र
में भाजपा सरकार बना सकती है
अथवा सबसे महत्वपूर्ण भुमिका
में आ सकती है...।
लेकिन इस प्रभाव में ना तो
पवार प्रभावशाली होंगे..
ना ही ठाकरे...।
क्योंकि नरेंद्र मोदी के नाम
पर यह जीत होगी... और
राज्य की भाजपा नेतृत्व केंद्र
पर निर्भर रहेगी... जाहिर
है कि राज्य की राजनीति केंद्र
की गैर मराठा नेतृत्व से संचालित
होगा... ।
यह
छटपटाहट ही है कि ... पवार और ठाकरे... चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस के बरक्स
भाजपा के प्रति अधिक हमलावर
बने रहे..।
राजनीति में जानी दुश्मन जैसे
बन चुके राज और उद्धव भी कांग्रेस
और पवार का विरोध छोड़ मोदी
के प्रति हमलावर हो उठे और यह
संकेद देने लगे कि वे आपस मे
हाथ मिला लेंगे...।
और अब जबकि चुनाव परिणाम आने में कुछ घंटों को समय शेष है... उद्धव फिर से नरम हो चुके हैं...। साफ है.. अपनी राजनीति चलती रहे यह ज्यादा जरूरी है.. बांकी सब बाद में....................
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