Wednesday, December 25, 2013

सरस क्षेत्र मिथिलांचल थीक




मिथिलांचल के एक बड़े विद्वान प्रो. राधाकृष्ण चौधरी ने 1970 में प्रकाशित अपनी किताब 'हिस्ट्री ऑफ मुस्लिम रूल इन तिरहूत' में लिखा था "मिथिला शायद एक मात्र ऐसा क्षेत्र है जो आर्यन सभ्यता के समय से अब तक अपनी सांस्कृतिक निरंतरता को बनाये रखा है।"



मां सीता की यह धरती सुख, शांति और समृद्धि का प्रतीक रही है। अपनी भाषा-- मैथिली, अपनी लिपि– मिथिलाक्षर और जीवन जीने का अपना एक ढ़ंग-- मिथिलांचल की पहचान है। यहां के बारे में कहा जाता है 


पग-पग पोखर माछ मखान,

सरस मधुर मुस्की मुख पान,

विद्या, वैभव शांति प्रतीक,

सरस क्षेत्र मिथिलांचल थीक। 
 

मिथिलांचल में कदम-कदम पर मिलने वाला पोखर (तालाब) और इसमें होनेवाले माछ (मछली) और मखान यहां की अर्थव्यवस्था की रीढ़ रहा है। बरसात के समय में पानी से लबालब भरे तालाब, साल के दूसरे हिस्सों में खेती के लिए पानी उपलब्ध कराते हैं। इसके साथ तालाब में होनेवाले मछली और मखान की खेती से किसानो को नगद आय की आमदनी होती है।



चेहरे पर मौजूद मुस्कान लोगों की संपन्नता और उनकी आध्यात्मिक सोच को दर्शाते हैं। इस क्षेत्र ने एक से एक विद्वान पैदा किये हैं। कवि विद्यापति इसी धरती पर प्रकट हुए थे। कहा जाता है कि भगवान शंकउनकी भक्ति से इतने प्रसन्न हुए कि खुद विद्यापति के घर सेवक के रुप में निवास करना स्वीकार किया। 
 

आदि शंकराचार्य को मिथिलांचल में ही मंडन मिश्र के हाथों शास्त्रार्थ में पराजय झेलना पड़ा था। दर्शन के प्रकांड विद्वान मंडन मिश्र को आदि शंकराचार्य ने बाद में अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। कहा जाता है कि उन दिनो मंडन मिश्र के गांव महिषी में इतने शास्त्रार्थ होते थे कि पक्षी भी संस्कृत में ही बात करते थे। एक-से-बढ़कर एक साहित्यकार इस क्षेत्र ने दिए। बाबा नागार्जुन, फणीश्वरनाथ रेणु जैसे कई नामचीन हस्तियों ने मिथिला गौरव का मान बढ़ाया।



मिथिला या मधुबनी पेंटिंग इस क्षेत्र की अपनी प्राचीन चित्रकला है जिसे दुनियां भर में पहचान हासिल है। इस पेंटिंग की प्रसिद्धि का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जापान में एक बहुत बड़ा संग्रहालय इस के नाम पर बना हुआ है। भित्ती चित्र और अरिपन मधुबनी पेंटिंग के दो प्रकार हैं। आंगन में या चौखट के सामने बननेवाला अरिपन अलग खुबसूरती रखता है। रंगों से भरे अरिपन के माध्यम से उपयोग में आनेवाले वस्तुओं को दर्शाया जाता है। 
 

सालों भर यहां एक के बाद एक ढ़ेर सारे पर्व त्योहार मनाए जाते हैं। ये पर्व त्योहार लोगों को सकारात्मक ऊर्जा से भरते हैं। सामा-चकेवा भाई-बहनों के बीच के स्नेह को दर्शानेवाला एक विशिष्ट त्योहार है जिसे मिथिलांचल में बड़े धूमधाम से परंपरागत रुप में मनाया जाता है। भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब और पुत्री साम्बा के स्नेह को दर्शाते इस त्योहार में सामा-चकेवा, चुगला,सतभैंया जैसे मिट्टी के पात्र होते हैं। पन्द्रह दिनो तक चलने वाला त्योहार जब कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि में पूर्ण होने को आता है, इसे मनाने वाली महिलाएं भाई-बहन के स्नेह को याद कर खुद को भावुक होने से रोक नहीं पातीं।



मधुबनी जिले में अवस्थिल सौराठ ग्राम मिथिलांचल की एक खास पहचान है, जहां प्रत्येक वर्ष एक विशेष समय पर विवाह योग्य युवक अपने अभिभावक के साथ इकट्ठे होते हैं। कन्यापक्ष के लोग अपनी कन्या के लिए यहां वर पसंद करते हैं और फिर विवाह तय करते हैं। हालाकि सौराठ सभा के नाम से प्रसिद्ध यह मेला अब आधुनिकता की भेंट चढ़ चुका है। 14वीं शताब्दी में ही यहां शादियों के पंजीकरण की प्रथा शुरु हो गई थी। पंजीकारों के पास सैकड़ों वर्ष पूर्व हुई शादियों की जानकारियां उपलब्ध हैं। अन्य क्षेत्रों और परंपराओं में जहां शादी से जुड़ी सारे विधि-विधान महज एक-दो हफ्ते में पूरे हो जाते हैं, वहीं मिथिलांचल में शादी-व्याह के रीति-रिवाज वर्षपर्यन्त जारी रहते हैं। शादी में शामिल होने आये मेहमानों की खातिरदारी तो कोई यहां सीखे। यह क्षेत्र सदियों से मेहमानवाजी के लिए सुख्यात रहा है।



पश्चिम की भोगवादी संस्कृति से देश का हर क्षेत्र प्रभावित हुआ है, मिथिलांचल भी अछूता नहीं है। लेकिन इसकी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान और विविधता आज भी इसे एक अलग स्थान प्रदान करती है। भौगोलिक दृष्टि से छोटे से भू-भाग में अवस्थित मिथिलांचल के लोग दुनिया भर में फैले हुए हैं। लेकिन अपनी माटी से हजारो किलोमीटर दूर रहने के बावजूद वे अपनी परंपराओं और मिट्टी की खुशबू को संजोये हुए हैं। उनके दिलों में एक लधु मिथिलांचल समग्रता में पूरी परंपरा के साथ निवास करता है।






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