Thursday, October 23, 2014


दिपावली की हार्दिक शुभकामनाएं

Saturday, October 18, 2014


नतीजा आने से पहले इस तरह का लिखना एक  बड़ा खतरा होता है...। आपको एक का पक्ष लेने का आरोपी ठहराया जा सकता है.. लेकिन अपनी नजरों से जो दिखे.. उसे लिखने से अगर कोई आरोप लगे तो वो शिरोधार्य है...

महाराष्ट्र से इस बार मराठी साफ हैं..(माफ करें महाराष्ट्र के आम जनता) मैं उन मराठियों की बात नहीं कर रहा जो इस उम्मीद से वोट देते हैं कि हालात बदलेंगे..। मैं उन मारठियों की बात नहीं कर रहा जो दिन भर इस उम्मीद से मेहनत करते हैं कि उनके बच्चे हमेशा सबसे आगे रहेंगे, मैं उन मराठियों की बात नहीं कर रहा... जो इस उम्मीद में मेहनत किए जाते हैं कि उनके बच्चे खेल कूद कर सबसे आगे बढ़ें...। मैं उन मराठियों की बात भी नहीं कर रहा जो दिन भर खेतों में लगे रहते हैं.. इस उम्मीद से कि वे सबसे आगे रहेंगे..

दरअसल मैं उन मराठियों की बात कर रहा हूं... जो जो महाराष्ट्र के करोड़ों लोगों की ठेकेदारी दशकों से ले रखे हैं.... और उनके लिए कुछ करने की बजाय अपना घर भरने में लगे हैं...। मैं उन मराठियों की बात कर रहा हूं... जिनसे जब हिसाब मांगा जाता है... तो बिहारियों और यूपी के भैयों को पीटकर जवाब देते हैं... कि नौकरी तो सारे यूपी के भैया और बिहारी खा गए...। लेकिन वो भूल जाते हैं कि उनकी कंपनियों में सबसे अधिक ये भैये काम करते हैं... और मुनाफे की कमाई अपनी पेटों में हजम किए बैठ जाते हैं।
इतिहास उलट के देखिए... मराठियों की बहादुरी और जिंदादिली आपको देश में सबसे ऊपर दिखेगा..। लेकिन दिक्कत तब से शुरू हुई जब से उन बहादुरी और जिंदादिली को बेईमान नेताओं ने बुजदिली में बदल दिया..। उन बहादुरी का इस्तेमाल सिर्फ निर्दोषों को पीटने में लगाया गया...। ताकत का इस्तेमाल सकारात्मक दिशा में होने के खतरे को महसूस करते देख उसे निर्दोषों के खिलाफ मोड़ दिया गया...

भाजपा और शिवसेना का गठबंदन टूट गया... कांग्रेस और एनसीपी का गठबंधन टूट गया..। बाला साहेब के बेटा और भतीजा एक साथ मिल गये... औपचारिक घोषणा भले ही ना हुई हो... सामने तो कम से कम यही आ रहा है... बेचारा बाला साहब इस उम्मीद को अपने हृदय मे दबाए दिवंकत हो गये कि उनका भतीजा राज ठाकरे, जिसे उन्होंने पाला-पोसा और आगे बढ़ाया, उनके बेटे-- उद्धव को अपना नेता मान ले..

बात करते हैं शरद पवार की...। जरा किताब पलट कर देख लीजिए.. । सोनिया गांधी के खिलाफ विदेशी मूल का होने के मसले पर पवार के विरोध को याद कीजिए..। पूराने कांग्रेसी शरद पवार का पार्टी नेतृत्व के खिलाफ विद्रोह का यह पहला मामला नहीं था..। 36 साल की उम्र में पहली बार महाराष्ट्र का मुख्यंत्री बने शरद पवार कभी कांग्रेस नेतृत्व के काबू में नहीं रहे...



अपनी अपार नेतृत्व क्षमता का उपयोग उन्होंने सिर्फ अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को पूरी करने और अकूत संपत्ति को इकट्ठा करने में किया...

इस बात का उनके पास कोई जवाब नहीं है कि जब सोनिया गांधी के नेतृत्व को उन्होंने विदेश मूल के होने के मुद्दे पर चुनौति दी और पार्टी को अलविदा कह दिया तो फिर उसी नेतृत्व की सरकार को क्यों दस वर्षों तक समर्थन देते रहे...। इतना ही नहीं.. शरद पवार उस मंत्रालय के मंत्री भी बने रहे जिस पर किसानों को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी होती है... उन्हीं के कार्यकाल में विदर्भ में किसान लगातार अपनी दुर्दशा से पीड़ित होकर जान देते रहे... और पवार अपनी योग्यता का इस्तेमाल कभी अपने भतीजे अजीत पवार के समर्थन में... तो कभी उनके खिलाफ करते रहे...। कभी अपनी बेटी को आगे बढा रहे थे तो कभी अपने वित्तीय प्रबंधक प्रफुल्ल पटेल के हित को साधने में...


थोड़ा पीछे चलें...। लोकसभा चुनाव 2014. दोनो चचेरे भाई मोदी की तारीफ में लगे थे..। हालांकि उन्हें उम्मीद नहीं थी.. लेकिन बीजेपी की सफलता ने उन्हें आश्चर्यचकित कर दिा...। और फिर लोकसभा चुनाव आया...

दशकों से महाराष्ट्र की राज्य राजनीति में पवार और ठाकरे के खिलाफ कोई मुंह नहीं खोल पाता था...। पहली बार ऐसा लगा कि राज्य की राजनीति में इनकी भूमिका नगण्य होती जा रही है...
हार को आसन्न देख शरद पवार ने अपनी पार्टी का गठबंधन कांग्रेस से तोड़ दिया..। इस गठबंधन को तोड़ना तो बहाना था.. । शरद पवार दरअसल एक अव्वल दरजे के व्यापारी हैं.. असली व्यापारी सत्ता से कभी दूर नहीं होता सो भाजपा से गठबंधन बढ़ाने की चाहत में उन्होंने कमजोर होते जा रही कांग्रेस को अलविदा कह दिया...। मतलब राज्य की राजनीति में पवार की भुमिका नगण्य...। शिवसेना इस उम्मीद में थी कि भाजपा अंत में उनकी शर्तों को मान लेगी... लेकिन नरेंद्र मोदी की सफलता से झूम रही भाजपा... अब शिवसेना को छोड़कर भी अपने लिए राज्य में एक सुखद भविष्य देखने लगी...
प्रमोद महाजन और गोपीनाथ मुंडे के असामयिक निधन से राज्य में भाजपा को काभी चोट पहुंचा..। और पार्टी में स्थानीय प्रभावशील नेता का अभाव हो गया..। लेकिन नरेंद्र मोदी के उदय ने राज्य भाजपा को उम्मीद की एक रौशनी दे दी... और पहली बार ऐसा लगा कि महाराष्ट्र में भाजपा सरकार बना सकती है अथवा सबसे महत्वपूर्ण भुमिका में आ सकती है...। लेकिन इस प्रभाव में ना तो पवार प्रभावशाली होंगे.. ना ही ठाकरे...। क्योंकि नरेंद्र मोदी के नाम पर यह जीत होगी... और राज्य की भाजपा नेतृत्व केंद्र पर निर्भर रहेगी... जाहिर है कि राज्य की राजनीति केंद्र की गैर मराठा नेतृत्व से संचालित होगा...

यह छटपटाहट ही है कि ... पवार और ठाकरे... चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस के बरक्स भाजपा के प्रति अधिक हमलावर बने रहे..। राजनीति में जानी दुश्मन जैसे बन चुके राज और उद्धव भी कांग्रेस और पवार का विरोध छोड़ मोदी के प्रति हमलावर हो उठे और यह संकेद देने लगे कि वे आपस मे हाथ मिला लेंगे...

और अब जबकि चुनाव परिणाम आने में कुछ घंटों को समय शेष है... उद्धव फिर से नरम हो चुके हैं...। साफ है.. अपनी राजनीति चलती रहे यह ज्यादा जरूरी है.. बांकी सब बाद में....................




Wednesday, October 15, 2014



हरियाणा विधानसभा चुनाव-2014
कुल सीट-90



Times Now-C Voter
India TV-C Voter
News 24-Chanakya
ABP News-Nielsen
BJP
48
42 to 48
52
54
INC
12
12 to 18
10
10
INLD
25
20-26
23
22
HJC
5
1 to 7
5
2
Others
5
0-6
5
2

एग्जिट पोल 


महाराष्ट्रा विधानसभा चुनाव-2014 के लिए आज (15-10-14) मतदान संपन्न हो गए। कुल 288 सीटों के महा विधानसभा चुनाव में 54.5 फीसदी लोगों ने वोट डाले... 
चुनावोपरांत कराए गए एग्जिट पोल के नतीजे...



Times Now-C Voter India TV-C Voter News 24-Chanakya India News-Axis Survey India Today Group-Cicero ABP News-Nielsen
BJP 138 133-143 151 103 117-131 144
INC 41 36-46 27 45 30-40 30
SS 59 54-64 71 88 66-76 77
NCP 30 25-35 28 35 24-34 29
MNS 12 09  to 15 5 (MNS others) 5 04 to 10 3














Friday, October 10, 2014

मुश्किल होता हरियाणा का चुनावी संग्राम



15 अक्टूबर को होने जा रहे हरियाणा विधानसभा चुनाव में अब कुछ ही दिन बचे हैं...। चुनावी चकल्लस अपने चरम पर है...। प्रधानमंत्री से लेकर राहुल गांधी और दूसरे दलों के बड़े-बड़े धुरंधर नेता धूंआधार चुनाव प्रचार में जुटे हुए हैं...

 पिछले दस सालों से हरियाणा में सरकार चला रही कांग्रेस के लिए मुकाबला काफी मुश्किल होता दिख रहा है...। हां, एक बात यह भी है कि कांग्रेस अब उतनी कमजोर भी नहीं दिख रही है जितनी की शुरुआती दिनों में नजर आ रही थी..। 

कांग्रेस का चुनावी अभियान मुख्यमंत्री हुड्डा के इर्द-गिर्द ही घूम रहा है है..। कांग्रेस के राज्य नेतृत्व में हुड्डा दरअसल अकेले छोड़ दिये गये हैं...। टिकट बंटवारे में दूसरे नेताओं की अनदेखी से हुड्डा को चुनावी मैदान में अपनी पार्टी के भीतर ही अधिक चुनौतियां मिल रही हैं..। राहुल गांधी के खास माने जाने वाले प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर भी पूरे मन से प्रचार में नहीं जुटे हैं..। 

कुमारी सैलजा, प्रचार करने की वजाय अपना ध्यान इस बात पर अधिक लगा रही हैं कि चुनाव के बाद अगर कांग्रेस सत्ता में वापस आती है तो..... हुड्डा का पत्ता किस तरह कटवाया जाए... । लगे हाथों सैलजा यह जताना भी नहीं भूलतीं कि पार्टी चुनावी मैदान में हुड्डा के दस सालों के परफॉर्मेंस के आधार पर है, इसलिए अगर पार्टी चुनाव में हारती भी है तो जिम्मेदारी सिर्फ हुड्डा की होगी...

2014 के चुनावी अभियान में चौटाला की पार्टी हमेशा से सबसे आगे चल रही थी..। सबसे पहले उम्मीदवारों की घोषणा और फिर चुनावी अभियान की शुरुआत भी..। इंडियन नेशनल लोकदल चुनाव जीतने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहती..। 


व्यक्ति आधारित पार्टी के साथ सत्ता से बाहर रहने के बाद अपनी प्रासंगिता बनाए रखने की चुनौति होती है..। दस सालों से सत्ता से बाहर रही आईएनएलडी से अधिक इस बात को और कौन जान सकती है..। इसलिए पार्टी ने इस बार के चुनावी अभियान में अपना सर्वस्व झोंक दिया है..। यहां तक कि खराब स्वास्थ्य के आधार पर जेल से जमानत पाए ओमप्रकाश चौटाल भी खुद को चुनावी मैदान से दूर नहीं रख पाए..। 

चौटाला अभी नहीं तो कभी नहीं के आधार पर अपनी पार्टी का चुनावी अभियान चला रहे हैं...। आईएनएलडी का अपना एक आधार है... और फिर चैौटाला के जेल से बाहर निकलने से ... पार्टी उस हताशा से उबरने का प्रयास तेजी से कर रही है जो... ओमप्रकाश और बेटे अजय चौटाला के सजायाफ्ता होने से पैदा हुई थी..। 

ओमप्रकाश चौटाला को जेल में फिर से डालने के लिए कानूनी प्रयास बहुत तेजी से हो रहे हैं... लेकिन चुनावी लड़ाई अब उस जगह पर पहुंच चुकी है जहां... चौटाला जेल जाकर भी अपनी पार्टी का भला करवा जाएंगे..

लोकसभा चुनाव में दस में से सात सीटें जीतने वाली पार्टी भाजपा एक बार फिर से मोदी के नाम के सहारे है..। विधानसभा चुनाव में पार्टी के पक्ष में जो भी माहौल है उसमें सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों का हाथ है..। 

शायद यह पहली बार हो रहा है जबकि कोई प्रधानमंत्री किसी विधानसभा चुनाव में इस तरह से व्यापक पैमाने पर चुनावी रैलियां कर रहा हो..। राज्य में विपक्ष में होने के नाते जो एकजुटता होनी चाहिए उसकी कलई इस बात से खुल जाती है कि अमित शाह किसी भी व्यक्ति को मुख्यमंत्री के रूप में आगे करने का साहस नहीं जुटा पाए..

दूसरे दलों से आए नेता जहां सीएम की कुर्सी पर निशाना गड़ाए हुए हैं.. वहीं पार्टी के पुराने नेता जैसे अनिल विज, रामविलास शर्मा, मनोहर लाल खट्टर भी ताल ठोक रहे हैं...। चुनावी अभियान को देखें तो बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह... कैप्टन अभिमन्यु की तरफ ईशारा कर चुके हैं..

लेकिन लोकसभा चुनाव में कैप्टन अभिमन्यु की करारी हार, स्थानीय लोगों में उनके प्रभाव का अभाव और भाजपा की स्थानीय राजनीति की उलझनें... अमित शाह को प्रत्यक्ष तौर से किसी नेता का आगे करने से रोक रही है..

कुलदीप बिश्नोई की पार्टी हरियाणा जनहित कांग्रेस (हजकां) खुद को चुनावी मैदान से बाहर मानकर चल रही है.. ..। पार्टी की चुनावी गतिविधियां कुच उन क्षेत्रों तक सीमित हो कर रह गई हैं जहां से परिवार के लोग चुनावी मैदान में हैं या जो पार्टी का पुराना किला रही है..। 

गठबंधन टूटने का असल बीजेपी को भी झेलना पड़ सकता है...। लेकिन हजकां राजनीतिक हाशिए पर पहुंच गई है..। अगर हजकां का चुनावी नतीजा अच्चा नहीं रहा (जैसा होता अभी दिख रहा है), तो बिश्नोई को व्यक्तिगत राजनीति को चलाने के लिए भी किसी दूसरी पार्टी का दामन थामना पड़ सकता है।


Monday, October 6, 2014

कहीं उम्मीद की किरण दिख रही है? मुझे तो बिल्कुल नहीं.....।

समझ आया तो खुद को लालू राज में पाया....। लालू चालीसा, माय समीकरण, विकास करने से वोट नहीं मिलता.... जैसी बातें फिजा में गूंजा करतीं। डीएम-एसपी से मुख्यमंत्री पांव छुआते..। रेप, लूट, मर्डर, किडनैपिंग... जैसी बातें इटरटेनमेंट की घटनाएं होतीं..। अगड़ी जातियों और पिछड़ी जातियों के बीच खूना-खच्चर, समाज में तनाव ऐसा कि दूसरे को देखते ही खा जाने को दौड़े...। राजनीति में अपराध अपने चरम पर, रंग-बिरंगे अपराधी और नेता कुकुरमुत्ते की तरह सड़कों पर फैले हुए थे..। किसी के पीछे माय की मजबूरी थी... तो किसी के पीछे बाप का हाथ था...

सड़कों से गायब होते जा रहे थे सड़क, बचे थे तो सिर्फ गडढ़े और उनमें भरे कीचड़। कल-कारखाने जो भी थे बंद होते जा रहे थे... कंपनियों के शो रूम लूटे जा रहे थे...। स्कूल से छात्र दूर भागते जा रहे थे... क्योंकि पास होने के लिए ना तो स्कूल जाना जरूरी था और ना ही पढ़ाई करना। और फिर पढ़ के होना भी क्या था...। ना तो छात्र स्कूल जाते और ना ही अध्यापक...। घर में बैठे-बैठे सबकुछ हो जाता...। छात्रों के पास पढ़ाई नहीं, जाहिर है काम भी नहीं... तो अपराध की ओर रुझान पढ़ता गया...। फिर अपराधियों का बनता हेडलाइन्स, पैसा और नाम कमाने का आसान जरिया सुझा रहा था ।


जो इन चीजों को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे.... वे बहुत तेजी से पलायन करते जा रहे थे... । मुंबई, पूने, दिल्ली, कलकत्ता, लुधियाना, जालंधर, सूरत, अहमदाबाद... जिसे जहां जगह मिल रहा था... वहीं पर खुद को खपाता जा रहा था। दूसरे राज्यों में खेत, कंस्ट्रक्शन, फैक्ट्री तक में बिहारी मजदूर अपनी तकदीर संवारने की कोशिश में खुद को खपाते जा रहे थे।, राजस्थान और दक्षिण राज्यों में जाकर छात्र इस दौरान लगातार अपने भविष्य को संवारने के लिए जूझ रहे थे...। एक तो घर से दूर रहने की पीड़ा, पैसों की कमी और ऊपर से दागी या फिर बदनाम राज्य के होने से मिलने वाले ताने.... छात्रों की जिंदगी को कठिन कर रखा था.
दिल्ली
कुल मिलाकर घटाटोप अंधेरा... चारो ओर...। रोशनी की एक भी किरण नहीं...। यह एक विनाश चक्र था...। कहीं से भी शुरुआत करो... अंत में फिर अंधेरा..। लेकिन इस अंधेरे में भी कुछ लोग थे जो लगातार अंधेरे को चीरने का प्रयास कर रहे थे। वे अंधेरे के साम्राज्य को तोड़ने के लिए जीतोड़ प्रयास कर रहे थे..। और फिर चक्र चलते-चलते ऐसी जगह पहुंचा... जहां से बंद गवाक्षों के पट खुलते दिखे...। उम्मीद की किरणें सर उठाने लगीं...। सरकार बदली... सत्ता में बदलाव हुआ तो लगा कि व्यवस्था भी बदलेग...। कुछ हद तक बदली भी...

लेकिन पीछले कई दशकों में कहीं कुछ ऐसा जरूर नष्ट हो गया था.... जो बदलाव के बाद भी चीजों को संवरने या फिर सामान होने नहीं दे रहा था। ऐसा लग रहा मानो प्रदेश का स्पर्म ही दूषित हो गया हो... धरती शापित हो गई हो..। तमाम प्रयासों के बाद भी कुछ अच्छा नहीं हो पा रहा...

जब लग रहा था कि कुछ ठीग होगा..। एक व्यक्ति ने अपने अहंकार की वजह से सबकुछ नष्ट कर दिया...। ऐसा लग रहा है कि जैसे पानी भरे बाल्टी को कुएं से आधा निकालने के बाद रस्सी क साथ ही बीच रास्ते छोड़ दिया गया हो...। और बाल्टी पानी में डूब गया हो..। ऊपर निकालने की संभावना क्षीण...
प्रदेश का मुख्यमंत्री एक ऐसे व्यक्ति को बना दिया गया..... जिसके साथ सहानुभूति सिर्फ उसकी जाति की वजह से हो सकती है..। जिसने हमेशा शोषण का दंश झेला है...। लेकिन क्या किसी शोषित को सिर्फ इसलिए 10 करोड़ लोगों के भाग्य का विधाता बना दिया जाए...क्योंकि उसके पूर्वजों के साथ कभी शोषण हुआ था.., क्योंकि वह समाज के सबसे कमजोर वर्ग से आता है...। लेकिन कोई क्या यह बताएगा कि बाकि लोगों की क्या गलती है... वह क्यों सजा पाए...???

कुछ बानगी देखिए.....

राज्य सूखे से कराह रहा है... किसान त्राहिमाम कर रहे हैं... और प्रदेश के अधिकारी आंखों पर काला चश्मा लगाए मुख्यमंत्री को सावन की हरियाली दिखा रहे हैं..। हद तो यह है कि मुख्यमंत्री सब जानते हुए कुछ नहीं कर पा रहा...। मुख्यमंत्री लाचार, बिमार और बेचारा बना हुआ है।

मुख्यमंत्री किसी मंदिर से बाहर आता है और फिर उस मंदिर का शुद्धिकरण किया जाता है.... मुख्यमंत्री व्यवस्था की दुहाई देता है..। मंत्री मजे लेता है...। लानत क्यों न हो ऐसे मुख्यमंत्री पर जो अपनी रक्षा खुद न कर सके...। ऐसा मुख्यमंत्री दस करोड़ लोगों की रक्षा कैसे कर पाएगा..

एक मुख्यमंत्री राज्य के सबसे बड़े अस्पताल जाता है...। कुव्यवस्था देखकर अस्पताल के सबसे बड़े अधिकारी को बुलाता है... लेकिन अधिकारी आने से मना कर देता है...। अधिक संभावना है कि उस अधिकारी का कुछ नहीं बिगड़ेगा...

अब बताइए, क्या आपको कोई रोशनी दिख रही है???? नहीं दिखेगी... यहां सबसे निराशा की बात यह है कि आम जनता तक उस विनाश के दुष्चक्र का हिस्सा बन कर रह गई है... उसे आप निकालना चाहें तो वो खुद ना निकलें...

और अंत में सच बताउं..., मुझे ऐसा लग रहा है कि बिहार का मामला अब ऊपरवाले के हाथ से भी निकल चुका है.

Tuesday, August 19, 2014

हरियाणा का चुनावी चौसर


संयोग से इन दिनों हरियाणा की राजनीति को नजदीक से देखने का मौका मिल रहा है...। तीन लालों- देवीलाल, वंशीलाल और भजनलाल- की इस धरती की राजनीति पहली बार इनकी विरासत से बाहर निकलने को आतुर दिख रही है...

अभी तक के जो समीकरण दिख रहे हैं... उसमें कांग्रेस तकरीबन सत्ता से खुद को बाहर मान कर चल रही है...। लोकसभा में मिली करारी मात ने पार्टी को बिल्कुल बिखेड़ कर रख दिया है... । हरियाणा कांग्रेस से एक के बाद एक अपना दामन छुड़ा रहे हैं...। नेताओं के पार्टी छोड़ने का सिलसिला लोकसभा चुनाव से ठीक पहले शुरू हो गया था जब राव इंद्रजीत सिंह ने हाथ को भाजपा का कमल थाम लिया था..। हरियाणा में एक कद्दावर नेता को तरस रही भाजपा के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि थी...। भाजपा में राव इंद्रजीत सिंह के शामिल होने का महत्व इस बात से लगाया जा सकता है कि सत्ता में आने के बाद जहां पुराने नेता मंत्री पद की जुगत लगाने में भिड़े थे... तब राव इंद्रजीत सिंह को मोदी सरकार में आसानी से जगह मिल गई...। जगह ही नहीं मिली बल्कि उन्हें काफी महत्पूर्ण विभाग भी मिला।

पूर्व मंत्री या पूर्व विधायक जैसे नेताओं की बात छोड़ दें तो हरियाणा में भाजपा की दूसरी बड़ी उपलब्धि रही जींद इलाके से आने वाले कांग्रेस के कद्दावर जाट नेता चौधरी बीरेंद्र सिंह को तोड़ना। कांग्रेस में रहते हुए मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नजर गराए चौधरी बीरेंद्र बहुत कोशिशों के बाद भी मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा का कुछ नहीं बिगा़ड़ पाए..10 जनपथ पर मजबूत पकड़ से हुड्डा कांग्रेस की राज्य राजनीति में अपराजेय बने रहे।


लोकसभा चुनाव में हार के बाद हुड्डा विरोधी खेमे ने तख्तापलट की नाकाम कोशिश की थी.. और फिर कोई चारा ना देख कांग्रेस से बाहर अपनी राह देखनी शुरू कर दी।।।।

वहीं ओम प्रकाश चौटाला और अजय चौटाला के जेल जाने के बाद से आईएनएलडी अभी तक संभल नहीं पाई है...। यूं तो भारतीय मतदाता नेताओं पर लगे आरोपों को ज्यादा भाव नहीं देती.. देती भी है तो जल्द भुला देती है.... लेकिन अभी जो परिदृश्य बन रहा है उसमें चौटाला की पार्टी की हालत बहुत अच्छी नहीं है...। टिकटों के बंटवारे के बाद से पार्टी में उबाल आया हुआ है..। दर्जनों नेता अभी तक पार्टी छोड़ दूसरे दरवाजों पर दस्तक दे चुके हैं...। ओमप्रकाश चौटाला खुद जेल से बाहर आ चुके हैं लेकिन कितने दिन बाहर रहेंगे इस पर संशय बरकरार है...

भाजपा के साथ गठबंधन में शामिल.... कुलदीप बिश्नोई की हरियाणा जनहित कांग्रेस या हजकां
का भाजपा के साथ गठबंधन बना रहेगा इसकी संभावन अब कम ही है..। फिर भी हालात ऐसे हैं कि राज्य में हजकां और भाजपा की राजनीति को अलग-अलग करके अभी देखना मुश्किल लग रहा।
दरअसल भाजपा-हजकां के संबंध ऐसी करबट ले रहा है जो कम से कम भाजपा की राजनीति पर नजर रखनेवालों के लिए बिल्कुल नया है..। आपने भाजपा को कभी अपने गठबंधन सहयोगी के सामने गुर्राते देखा है..। नहीं...कभी नहीं...। लेकिन इस बार भाजपा बिश्नोई और उनकी पार्टी के सामने दहाड़ मार रही है..। और हजकां भीगी बिल्ली बनी गठबंधन बचाने की कोशिश में लगी पड़ी है।

दरअसल भाजपा की राजनीति में पिछले एक साल में काफी बड़ा बदलाव आया है...। यह पार्टी अब अपने संस्थापकों के हाथ से निकल चुकी है...। मोदी और शाह का अब ऐसा नेतृत्व है जिसने भाजपा में खेल के सारे नियम बदल कर रख दिए हैं...

याद कीजिए भाजपा के संबंध, नीतिश की पार्टी जेडीयू के साथ, नवीन पटनायक की पार्टी बीजेडी के साथ, ममता की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के साथ, जयललिया की पार्टी एआईएडीएमके के साथ.. या फि याद कीजिए दूसरी पार्टियों के साथ भाजपा के गठबंधन को...। इन दलों ने हमेशा से भाजपा पर अपनी मर्जी थोपी है..। यह महला ऐसा मौका है जब भाजपा गठबंधन को अपने हिसाब से चला रही है...

बिश्नोई के पास अकेले लड़ने पर कुछ नहीं बचेका..। यह बात उन्हें भी पता है..। भाजपा के साथ रहने पर 1) प्रदेश की सरकार में आने की संभावना बनी रहेगी और 2) केंद्र में भाजपा की सरकार का भी फायदा मिलने का चांस बना रहेगा...

लेकिन भाजपा का आत्मविश्वास इस कदर ऊंचाइयों पर है कि वो सोच रही है कि बिश्नोई से अलग हो कर भी वो विधानसभा चुनाव में आसान जीत हासिल कर लेगी...। साथ ही अगर खंडित जनादेश आता है तो भी उसके पास चौटाला या फिर बिश्नोई से हाथ मिलाने का ऑप्शन खुला रहेगा...
इसलीए भाजपा अभी हजकां की कोई परवाह नहीं कर रही है...

पीएस : हरियाणा की राजनीति के अलग-अलग रंग आपको आगे के पोस्ट में मिलते रहेंगे..

Friday, June 6, 2014

कब थमेगा एइएस का क़हर


मुज्फ्फरपुर में एक्यूट इन्सेफेलाइटिस सिन्ड्रोम का क़हर फिर से शुरु हो गया है...। इस महीने की शुरुआत से अब तक 24 बच्चों की मौत हो चुकी है जबकि कई बच्चे शहर के अलग-अलग अस्पताल में जिंदगी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। गुरुवार, जून छह को एक दिन में नौ बच्चों ने दम तोड़ा। इस सिन्ड्रोम से पीड़ित बच्चों का ईलाज स्थानीय एसकेएमसीएच और केजरीवाल अस्पताल में चल रहा है।

पिछले कई वर्षों से यह सिन्ड्रोम उत्तर बिहार में कहर बरपा रहा है। कई घरों के चिराग बुझ चुके हैं। या तो विशेषज्ञों से समझने में भूल हो रही हो,  या फिर प्रशासनिक स्तर पर कमी होनतीज सिर्फ यह है कि इसे नियंत्रित करने के सारे उपाय असफल हो चुके हैं।

इस साल भी इन मामलों के सामने आने के बाद से इसका पता लगाने के लिए देश और विदेश के डॉक्टर मुजफ्फरपुर पहुंचे हुए हैं। अमेरिका के सीडीसी के डॉ जेम्स भी मुजफ्फरपुर में है और इस बिमारी के कारणों को पता करने का प्रयास कर रहे हैं। दिल्ली से नेशनल सेन्टर फॉर डिजीज कन्ट्रोल की टीम भी मुजफ्फरपुर में कैम्प कर रही है
पिछले चार सालों में तीन सौ से  अधिक बच्चे एइएस की वजह से असमय मौत के मुहं में समा चुके हैं।


वर्ष...............................पीड़ित.................दम तोड़ने वाले बच्चों की संख्या
2010..............................72................................................27
2011..............................149..............................................55
2012...............................465............................................184
2013...............................172..............................................63

2012 की तुलना में 2013 में मौत की संख्या और एइएस के शिकार बच्चों की संख्या में काफी कमी आई थी। लेकिन इस बार जिस तरह से अचानक पिछले कुछ दिनो में इसके मामले बढ़े हैं... वह एक खतरनाक हालात की ओर इशारा कर रहा है।

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Tuesday, May 27, 2014

इतना लोहा कहां से लाता है गुजरात ???

जब भी मैं गुजरात की तरफ देखता हूं तो यही सोचता हूं कि यह राज्य इतना "लोहा" कहां से लाता है ??? चौंक गये!! गुजरात और लोहा!!! इनमे क्या सम्बन्ध है????

मैं आपको बताता हूं...। जब भी आप गुजरात की चर्चा करते हैं... गुजरातियों की चर्चा करते हैं तो आपके ज़हन में क्या आता है…???? चलिए मैं आपको बताता हूं कि मेरे ज़हन में क्या आता है!!!

शांतिप्रिय लोग, भाषा में छे-छू का अधिक प्रयोग, चुपचाप शांति से व्यापार करनेवाले लोग, हिंसा, अपराध से दूर रहनवाले लोग, हमेशा कानून का पालन करने वाले, और अंत में अपने काम से मतलब रखनेवाले लोग..। यानि कुल मिलाकर कहें.. तो 'ना काहू से दोस्ती ना काहू से वैर' के सिद्धांत पर चलनेवाले लोग…।

लेकिन जब इस समाज या राज्य को देखने से पता चलता है कि आराम की जिंदगी छोड़, देश-समाज की भलाई के लिए दूसरों से बैर लेने वाले, सबसे मजबूत लोग इसी समाज से हुए..

वो फकीर गुजरात का ही था... जो बिना हथियार उठाये अंग्रेजों से टकराता रहा। और जब अपने भटकते दिखे तो उनसे भी किनारा करने में उसे वक्त नहीं लगा। महात्मा गांधी उस वैचारिक दृढ़ता के प्रतीक थे जिसने असंभव को भी संभव बनाना सिखाया। लौह इरादे के बापू ने पूरे देश को अंग्रेजी सत्ता के सामने ला खड़ा किया जिससे देश आजाद हुआ...

सरदार बल्लभ भाई पटेल ऐसे थे कि लौह पुरुष ही कहे जाने लगे...। एक तरफ गांधी-नेहरु दूसरी तरफ उनसे पूरी विनम्रता के साथ सैद्धांतिक टकराव लेते गुजराती सरदार बल्लभ भाई पटेल..। अपने लिए कुछ मुनाफे की ख्वाहिश नहीं, सिर्फ देश के लिए...। शायद ये न होते तो भारत कई और देशों में बंटा होता और ये कुछ और साल जिंदा होते तो इस देश के नक्शे में कुछ और हिस्से जुड़े होते...

मोरारजी देसाई आजाद भारत में बनी पहली ग़ैर कांग्रेसी सरकार के प्रधानमंत्री थे। अभी की पीढी भले ही मोरारजी भाई के बार में अनजान हो लेकिन जो उस दौर के गवाह रहे हैं कि वे जानते हैं कि मोरारजी भाई किस तरह लौह व्यक्तित्व सख्सियत थे। उन्हें भारत रत्न के साथ ही पाकिस्तान के सबसे बड़े नागरिक सम्मान निशान-- पाकिस्तान से भी सम्मानित किया गया था। 
 
और अब बात नरेन्द्र दामोदरदास मोदी की..।  बीजेपी का एक छोटा सा नेता दिल्ली में बैठा है.. वहीं उसे गुजरात जाने का हुक्म सुनाया जाता है...। गुजरात का सीएम बनता है...। और फिर शुरु होता है उसके जीवन का सबसे कठिन दौर। पहले राज्य का भूकंप से तबाह होना। और फिर इससे उबरने के ठीक बाद सबसे भयानक हिंदू-मुस्लिम दंगा। दंगा ऐसा, जो उसे अपने घर में भी बेगाना बना देता है...। राजनीतिक रुप से अछूत बन जाता है वह व्यक्ति...। छूआछूत विरोधी कानून नहीं होता तो शायत वह सामाजिक रुप से भी अछूत घोषित कर दिया जाता। लेकिन लौह निश्चय, लौह आत्म विश्वास से भरा यह शख्स दशक भर से अधिक समय तक खुद को स्थापित बनाए रखने की लड़ाई लड़ता रहा। समय हर घाव को भर देता है लेकिन उसकी नीयति में कोई बदलाव नहीं दिख रहा था...। लोग अपने फायद के लिए उसके नाम के साथ एक से एक उपमा जोड़ रहे थे.. मौत के सौदागर से आगे न जाने क्या क्या!!! कुछ लोग तो राष्ट्रीय संप्रभुता के मुद्दे को नकारते हुए इस शख्श के खिलाफ दूसरे देशों को भी चिट्टी लिख रहे था..

 कोई और होता तो टूट जाता, बिखर जाता लेकिन इस शख्श ने झुकना तो सीखा ही नही था..। लड़ना और जीतना यही तो पहचान है नरेन्द्र मोदी की। जनता यह सब देख रही थी.. देख ही नहीं रही थी, समझ भी रही थी..। और इस लौह दृढ़ता वाले पुरुष को आंक रही थी, उसका मुल्यांकन कर रही थी। और एक दिन एक झटके में उसे सवा अरब आबादी वाले देश में सत्ता के शीर्ष पर पहुंचा दिया।

देश में एक से एक नेता हुए हैं... लेकिन गुजरात के जिन महापुरुषों (नरेन्द्र भाई का प्रधानमंत्री काल अच्छा रहा तो इतिहास उन्हें महापुरुष के रुप में ही याद करेगा) की मैने चर्चा की है वो अपने काल के सर्वश्रेष्ठ रहे हैं...। आप समझ गये होंगे कि मेरा प्रश्न वाजिह है कि गुजरात इतना लोहा कहां से लाता है जिनसे ऐसे लौह पुरुष तैयार होते हैं..



Wednesday, May 21, 2014

लोकसभा में परिवारवाद का बोलबाला


आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस के अध्यक्ष जगन मोहन रेड्डी के चचेरे भाई अविनाश रेड्डी कडपा से चुने गये, जबकि जगन के ही मौसा (मां की छोटी बहन के पति) सुब्बा रेड्डी ओंगोल से लोकसभा पहुंचने में सफल रहे हैं। जगन मोहन के परिवार के छह से अधिक सदस्य लोकसभा और विधानसभा के लिए चुनावी मैदान में थे। जगन की मां भी विशाखापत्तनम से लोकसभा पहुंचना चाहती थीं लेकिन जनता ने नो इंट्री लगा दिया।

वहीं नवगठित राज्य तेलंगाना की सबसे मजबूत पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति को चलाने वाले के. चन्द्रशेखर राव (केसीआर) के परिवार के भी कई सदस्यों ने विधानसभा और लोकसभा के लिए चुनाव लड़ा। पार्टी प्रमुख खुद मेडक से लोकसभा के लिए चुने गये जबकि उनकी बेटी कविता निजामाबाद से संसद पहुंचने में सफल रही। यानि पिता-पुत्री की जोड़ी लोकसभा पहुंचने में सफल रही। केसीआर विधानसभा के लिए भी चुने गये हैं। लेकिन वे लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे देंगे क्योंकि जनता ने उन्हें तेलंगाना पर शासन करने का मौका भी दिया है। 
 
असम में एआईयूडीएफ के बदरुद्दीन अजमल ढुबरी और उनके छोटे भाई सिराजउद्दीन अजमल बारपेटा सीट से लोकसभा के लिए चुने गये हैं।

बिहार में लोकजनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष रामविलास पासवान हाजीपुर से, उनके पुत्र चिराग पासवान जमुई से और भाई रामचन्द्र पासवान समस्तीपुर से जीतने में सफल रहे हैं। बीजेपी के साथ गठबंधन में इन्हें सात सीटें मिली थी, जिसमें से तीन सीटों पर परिवार के सदस्यों ने ही चुनाव लड़ा और तीनो जीतने में सफल रहे। यानि इस परिवार के तीन सदस्य लोकसभा में एक साथ दिखेंगे।

बिहार से ही पति-पत्नि भी लोकसभा में एक साथ पहुंचने में कामयाब हो गये हैं। लालू की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के टिकट पर मधेपुरा से पप्पू यादव लोकसभा के लिए चुने गए हैं जबकि उनकी पत्नी रंजीता रंजन कांग्रेस टिकट पर सुपौल से चुनाव जीतने में सफल हो गई हैं..। पप्पू यादव, जिनकी पहचान एक दबंग की है.. मधेपूरा से जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव को पटकनी देने में सफल रहे।

वहीं यूपी की बात करें तो मुलायम का परिवार हमेशा से राजनीति में छाया रहा है। इस बार भी समजावादी पार्टी की पांच सीटों में से सभी सीटें परिवार के पास ही है। मुलायम सिंह यादव खुद दो क्षेत्रों--मैनपुरी व आजमगढ़ से जीते हैं जबकि उनकी बहु और मुख्यमंत्री अखिलेश की पत्नी डिंपल यादव कन्नौज से सफल हुई हैं। मुलायम के छोटे भाई राम गोपाल के पुत्र अक्षय यादव फिरोजाबाद से लोकसभा का चुनाव जीतने में सफल रहे हैं। यानी एक ही परिवार से ससुर, बहु और चाचा-भतीजा एक साथ संसद में कानून बनाने बैठेंगे..। मुलायम के ही एक और भतीजा धर्मेन्द्र यादव बदायूं से लोकसभा के लिए चुने गये हैं।

कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी ऐसे ही परिवार में शामिल हैं। वहीं बीजेपी के टिकट पर मेनका गांधी और उनके पुत्र वरुण गांधी भी लोकसभा में होंगे।

यानि इस बार बड़ी संख्या में कई परिवारों के एक से अधिक सदस्य लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए हैं..। यह हालत तब है जबकि जनता ने बड़ी संख्या में ऐसे परिवारों को नकारा भी है। बिहार में जनता ने लालू प्रसाद की पत्नी राबड़ी देवी और पुत्री मीसा भारती को नकार दिया.. राबड़ी सारण से लोकसभा के मैदान में थीं जबकि उनकी बेटी मीसा भारती पाटलीपुत्र से। 

इनके अलावे भी देश में कई ऐसे राजनीतिक परिवार हैं जिनके सदस्य विधानसभा से लेकर लोकसभा तक में पाए जाते हैं। उदाहरण के लिए ममता बनर्जी जहां पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं वहीं उनका भतीजा अभिषेक मुखर्जी भी इस बार डाइमंड हार्बर लोकसभा सीट से संसद पहुंचने में सफल हो गये। वहीं राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के पुत्र अभिजीत मुखर्जी दूसरी बार भी बंगाल के जांगीपुर लोकसभा सीट जीतने में कामयाब रहे।





Sunday, May 18, 2014

30 देशों के 140 डेलिगेट्स भारत के चुनावी प्रक्रिया से अवगत हुए

दो महीने से भी अधिक समय तक चले भारतीय आम चुनाव को देखने-समझने के लिए दुनिया भर के 30 देशों से 140 डेलिगेट्स भारत आए थे...
इन लोगों ने अलग-अलग राज्यों में जाकर चुनावी प्रक्रिया को देखा और समझा कि किस तरह से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सफलतापूर्वक चुनाव का संचालन किया जाता है..
2014 लोकसभा चुनाव के दौरान भारतीय चुनाव आयोग ने एक इलेक्शन विजिटर्स प्रोग्राम चलाया   जिसके तहत दूसरे देशों के लोगों को भारतीय चुनावी प्रक्रिया से रुबरु होने का मौका मिला।
नाम्बिया, नाइजिरिया, लेसेथो, मलेशिया, मारिशस, म्यान्मार, नेपाल, केन्या, मिस्र, सउदी अरब, इराक, ओमन आदि देशों से आए डेलिगेट्स ने देश के अलग-अलग हिस्सों का दौरा किया।  
इन डेलिगेट्स को पहले अलग अलग समूहो में बांटा गया फिर प्रत्येक समूह को चुनाव आयोग ने चुनावी प्रक्रिया से अवगत कराया। फिर उन लोगों को चुनाव क्षेत्रों के दौरे पर ले जाया गया। कर्नाटक, यूपी, बंगालहिमाचल और दिल्ली के दौरे पर जाकर इन लोगों ने चुनावी प्रक्रिया और चुनाव आयोग के कार्य प्रणाली का सूक्ष्मता से अध्ययन किया। 
इस दौरान डेलिगेट्स चुनावी प्रक्रिया, इसमें तकनीक का प्रयोग और चुनाव आयोग की कार्य-प्रणाली से बहुत प्रभावित हुए..