अगर कुछ
बड़ा उलट फेर नहीं हुआ तो प्रणब
मुखर्जी का देश का प्रथम नागरिक
बनना तकरीबन तय है। पचपन फीसदी
से अधिक वोट उनके समर्थन में
है। यूपीए गठबंधन के साथ ही
कुछ बामपंथी और एनडीए के कुछ
घटक दलों ने भी उन्हें समर्थन
देने की घोषणा कर दी है।
एक टीवी
इंटर्व्यू के दौरान रिपोर्टर
ने उनसे सवाल किया कि अब वो
राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं
तो क्या उनकी कोई ऐसी ख्वाहिश
है जो पूरी ना हुई हो....मंद
मंद मुस्कुराते हुए दादा ने
कहा......'सभी आकांक्षाएं
कभी पूरी नहीं हो पातीं'.
यह कहते वक्त उनके
दिमाग में कही न कहीं उस कुर्सी
की तस्वीर जरुर रही होगी जिसपर
2004 से मनमोहन सिहं
लगातार बैठे हैं।
इंदिरा
गांधी के समय से ही सरकार और
पार्टी में प्रणब की हैसियत
नम्बर दो की रही है। नम्बर दो
रहने के दौरान भी काम वो नम्बर
एक का ही करते रहे। लेकिन नम्बर
एक कभी नहीं बन पाए। जाहिर है
इस बात का मलाल तो कहीं न कहीं
उनके जहन में जरुर होगा। 2004
से सरकार और पार्टी
के संगट मोचक बने रहे। चाहे
पार्टी में सकट हो या फिर सरकार
में....हालात जब भी
बेकाबू होते तो प्रणब बाबू
को याद किया जाता । तकरीबन तीन
दर्जन समितियों के या तो अध्यक्ष
रहे या फिर सदस्य।
पांच दशकों
तक उनकी छवि एक निर्विवाद नेता
की रही है। जिसने पार्टी के
लिए अपना पूरा जीवन दे दिया।
प्रणब मुखर्जी को जब राष्ट्रपति
बनाने की बात चल रही थी तो
कांग्रेस का बयान आया था कि
पार्टी उनको छो़ड़ नहीं सकती,
क्योंकि पार्टी और
सरकार में उनकी खाली जगह को
भरने के लिए दूसरा कोई नहीं
है। यह सवाल लेकिन अभी बचा हुआ
है कि अगर ममता और मुलायन ने
अपने उम्मीदवारों को नाम आगे
नहीं बढ़ाया होता तो शायद
कांग्रेस कभी राष्ट्रपति पद
के लिए प्रणब मुखर्जी के नाम
पर सहमत हो पाती या नहीं.
एक व्यक्ति
जब इतना अहम है तो सबसे महत्वपूर्ण
जिम्मेदारी उसे क्यों नहीं
दी गई? यह सबाल उठाना
कहीं से भी गलत नहीं है। कहा
जाता है कि इंदिरा गांधी की
हत्या के बाद प्रणब मुखर्जी
ने जाने या अनजाने, प्रत्यक्ष
या परोक्ष तौर पर खुद को
प्रधानमंत्री पद के लिए आगे
कर दिया था। क्योंकि कांग्रेस
में प्रधानमंत्री पद गांधी
परिवार के लिए आरक्षित है
इसलिए उनकी विश्वसनीयता और
बफादारी संदिग्ध हो गई। और
इस वजह से प्रणब दा सबसे
महत्वपूर्ण होते हुए भी सबसे
महत्वपूर्ण कुर्सी पर नहीं
बैठ पाए..क्या प्रणब
दा इन बातों को नहीं समझ पा
रहे होंगे?????
प्रणब
मुखर्जी हमेशा से कांग्रेस
के वफादार रहे हैं। हालाकि
एक बार उन्होने कांग्रेस से
अलग हो कर अपनी पार्टी भी बनाई
थी.....लेकिन जल्द ही
वे कांग्रेस में लौट आए। राजनीति
में आने का मकदस सेवा नहीं
सत्ता होता है। (इसे
आप अलग अलग रुप में पढ़ और समझ
सकते हैं). प्रणब
दा सत्ता में रहे लेकन शीर्ष
पर कभी नहीं पहुंच पाए। लेकन
अब जबकि वो राष्ट्रपति बनने
जा रहे हैं.....तो क्या
प्रधानमंत्री नहीं बन पाने
का बदला वो कांग्रेस ले
लेंगे???????
कांग्रेस
की तरफ से राष्ट्रपति पद के
लिए नामांकित होने के बाद से
प्रणब दा एक बात कहते आए हैं...
कि राष्ट्रपति बने
जाने के बाद उन्हें संवैधानिक
मर्यादाओं के तहत काम करना
होगा। प्रत्यक्ष या परोक्ष
तौर पर ही सही......उनका
इस तरह का कहना कहीं ना कहीं
कांग्रेस या सहयोगियों को यह
संदेश ही माना जाएगा कि उन्हें
कांग्रेस का एजेंट समझने की
भूल कोई (कांग्रेस
?) ना करे। सब जानते
हैं कि राष्ट्रपति का पद
सेवैधानिक प्रमुख का होता
है.... लेकिन जैसा
कि पूर्व राष्ट्रपति रामास्वामी
वेंकटरमण ने अपनी किताब 'माय
प्रेशिडेंशियल इयर्स' में
लिखा है कि 'राष्ट्रपति
का दफ्तर इमरजेंसी लाइट की
तरह होता है जो सामान्य काल
में निष्क्रिय होता है लेकिन
संगट की घड़ी में सक्रिय हो
जाता है।'
ऐसे संकट
की घड़ी में प्रणब मुखर्जी
अगर निष्पक्ष काम करने लगें
तो कांग्रेस के लिए वो संकट
का सबब बन सकते हैं। नाम मात्र
का प्रमुख होने का बावजूद
राष्ट्रपति कई मसलों पर अति
महत्वपूर्ण भूमिका निभाया
करता है। कहा जाता है कि तत्कालीन
राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह
ने एक बार राजीव गांधी की सरकार
को बर्खास्त करने की पूरी
तैयारी कर ली थी।
प्रणब दा
अपने राजनैतिक करियर और उम्र
के उस मकाम पर पहुंच गये हैं
जहां उनके लिए अब कुछ खास पाने
या खोने को बचा नहीं है..सिवाय..भारतीय
राजनीति का इतिहास में अपना
नाम एक सर्वमान्य नेता के तौर
पर दर्ज करवाने के। बहुत आश्चर्य
की बात नहीं होगी अगर प्रणब
मुखर्जी एक कांग्रेसी के कद
से बाहर निकल कर फैसला लेने
लगें। अगर वो अपनी दलीय पृष्ठभूमि
से बाहर निकल कर फैसला लेना
शुरु कर देते हैं...तो
जाहिर हैं कांग्रेस को दर्द
तो होगा ही।