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बिहार
की सत्ताधारी पार्टी जेडीयू
और इसके नेता मुख्यमंत्री
नीतीश कुमार बहुत तेजी से
कमजोर होते नजर आ रहे हैं। यह
मामला सिर्फ बीजेपी का साथ
छोड़ने, शरद
यादव से नीतीश की अनबन और जेडीयू
नेताओं के पार्टी छोड़ने भर
तक सीमित नहीं है। असली बात
है नीतीश के साथ जाति का अभाव होना,
जिसकी कमी
उन्हें इस चुनाव में महसूस
हो सकती है।
2005 से
बिहार की राजनीति को नीतीश
कुमार अपनी उंगलियों पर नचाते
रहे हैं। लालू-राबड़ी
के सत्ता से बाहर होने के बाद
जिस तरह से नीतीश नें लालू को
पटना में उनके घर से बेदखल किया था...पिछले
आठ वर्षों में नीतीश ने अपनी
पार्टी के कई नेताओं जैसे-
कुशवाहा,
ललन सिंह,
को भी उसी तरह से
बेदखल कर दिया।
वर्षों
तक नीतीश के साथ मिल, लालू
विरोध की राजनीति करने वाले
जो भी नेता, मुख्यमंत्री
बनने के बाद नीतीश के पैदा हुए
अहं के सामने नहीं टिक पाए,
उन्हें जेडीयू
से चलता कर दिया गया। लालू की
पार्टी से लोगों का आयात होता
रहा और समता पार्टी के मूल
नेता एक-एक
कर अपनी उपादेयता खोते चले
गये। यहां तक कि पार्टी अध्यक्ष
शरद यादव को भी हाशिए पर पहुंचा
दिया।
इस
दौरान नीतीश ने सिर्फ जेडीयू
के नेताओं को ही नहीं हड़काया,
बल्कि बिहार
बीजेपी को भी अपनी धौंस में
रखा। बीजेपी की केन्द्र में
शासन करने के लिए जेडीयू के
समर्थन की लालसा कहें या नीतीश
की सेटिंग करने की क्षमता,
बिहार बीजेपी
और बीजेपी के केन्द्रीय नेता
भी नीतीश के सामने उनकी भाषा
ही बोलते थे।
बिहार
की राजनीति हमेशा से जाति के
ईर्द-गिर्द
घुमती है। और नीतीश के पास
जाति का अभाव है। कुर्मी जाति
के नीतीश कुमार को कुर्मी वोट
शायद ही वो पहचान दिला पाता,
जो आज है।
लालू विरोध की लड़ाई और बीजेपी
के साथ होने से नीतीश दूसरी
जातियों में भी ग्राह्य हो
गये, और
एक राष्ट्रीय पहचान पा गये।
सत्ता
में आने के कुछ वर्षों बाद
नीतीश कुमार को अचानक इस बात
का एहसास हुआ कि लालू का मुद्दा
खत्म होने के साथ ही लालू विरोध
का वोट बैंक दूसरी
ओर जाने के लिए आजाद हो गया।
तब उन्होने महादलित कार्ड
खेला और साथ ही लालू के साथ
रहे मुस्लिम वोट को अपने साथ
लाने का मुहिम शुरु किया।
इसी
दौरान रामविलास पासवान ने
उनपर दलितों को विभाजित करने
के आरोप भी लगाये। रही बात
मुस्लिम वोट की..तो
इसके लिए नीतीश को 2002 के
गुजरात दंगें के केन्द्र बना
दिए गये नरेन्द्र मोदी के
विरोध से आसान रास्ता नजर नहीं
आया। नीतीश ने नरेन्द्र मोदी
कार्ड चलना शुरु कर दिया। मोदी
के साथ कई बार गलबहियां कर
चुके और बीजेपी के समर्थने
से सरकार चला रहे नीतीश के लिए
मोदी अचानक अछूत बन गये।
दरअसल,
नीतीश की यही
राजनीतिक चूक थी, जिसने
उन्हें मुख्यमंत्री रहते हुए
भी अप्रासंगिक बनाना शुरु कर
दिया। बीजेपी के साथ विधानसभा
में अपार बहुमत से शासन कर
रहे, नीतीश
की सरकार बीजेपी से अलग होकर
अचानक निर्दलीय और दूसरों की
वैशाखी पर आ गई। और नीतीश जब
कमजोर पड़े, तो
वो तमाम नेता जो सरकार की मजूबती
(जो बीजेपी
के समर्थने से थी), की
वजह से जुबान बंद रखे थे,
अचानक खुद को
नीतीश से आजाद महसूस करने लगे।
जेडीयू
में मची भगदड़,
सामान्य
चुनावी भगदड़ भर नहीं है। यह
नीतीश के साथ होने से भविष्य
डूबने की डर से पैदा हुई भगदड़
है। मोदी बनाम मोदी विरोध में
बंटी राजनीति में नीतीश को
कौन वोट देगा,
यह
चिंदा अब जेडीयू के नेताओं
को सताने लगा है। बिहार में
बीजेपी के विरोध में कौन होगा,
यह अब
तक तय नहीं है..और
हाल तक साथ-साथ
चले जेडीयू को यह जगह मिलेगा
इसका शक पार्टी नेताओं को भी
है।
बिहार
की राजनीति अभी तीन हिस्सों
में बंटी है- बीजेपी-लोजपा,
आरजेडी-कांग्रेस
और जेडीयू। सर्वे के मुताबिक
प्रदेश में बीजेपी सबसे आगे
चल रही है, यादव-मुस्लिम
गठजोड़ के बुते 15 वर्षों
तक शासन करने वाले लालू यदि
कांग्रेस के समर्थन से यादव
के साथ मुस्लिम वोट बरकरार
रखने में सफल होते हैं तो
नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू के लिए आगे का रास्ता मुश्किलों से भर जाएगा।