Thursday, March 27, 2014

बिहार की राजनीति में पतन की ओर नीतीश काल


 नोट : लिखने के बाद दुबारा पढ़ने का मौका नहीं मिला और बिना दुबारा पढ़े भी अपलोड करने का लोभ नहीं त्याग पाया।

बिहार की सत्ताधारी पार्टी जेडीयू और इसके नेता मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बहुत तेजी से कमजोर होते नजर आ रहे हैं। यह मामला सिर्फ बीजेपी का साथ छोड़ने, शरद यादव से नीतीश की अनबन और जेडीयू नेताओं के पार्टी छोड़ने भर तक सीमित नहीं है। असली बात है नीतीश के साथ जाति का अभाव होना, जिसकी कमी उन्हें इस चुनाव में महसूस हो सकती है।

2005 से बिहार की राजनीति को नीतीश कुमार अपनी उंगलियों पर नचाते रहे हैं। लालू-राबड़ी के सत्ता से बाहर होने के बाद जिस तरह से नीतीश नें लालू को पटना में उनके घर से बेदखल किया था...पिछले आठ वर्षों में नीतीश ने अपनी पार्टी के कई नेताओं जैसे- कुशवाहा, ललन सिंह, को भी उसी तरह से बेदखल कर दिया।

वर्षों तक नीतीश के साथ मिल, लालू विरोध की राजनीति करने वाले जो भी नेता, मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश के पैदा हुए अहं के सामने नहीं टिक पाए, उन्हें जेडीयू से चलता कर दिया गया। लालू की पार्टी से लोगों का आयात होता रहा और समता पार्टी के मूल नेता एक-एक कर अपनी उपादेयता खोते चले गये। यहां तक कि पार्टी अध्यक्ष शरद यादव को भी हाशिए पर पहुंचा दिया।

इस दौरान नीतीश ने सिर्फ जेडीयू के नेताओं को ही नहीं हड़काया, बल्कि बिहार बीजेपी को भी अपनी धौंस में रखा। बीजेपी की केन्द्र में शासन करने के लिए जेडीयू के समर्थन की लालसा कहें या नीतीश की सेटिंग करने की क्षमता, बिहार बीजेपी और बीजेपी के केन्द्रीय नेता भी नीतीश के सामने उनकी भाषा ही बोलते थे।

बिहार की राजनीति हमेशा से जाति के ईर्द-गिर्द घुमती है। और नीतीश के पास जाति का अभाव है। कुर्मी जाति के नीतीश कुमार को कुर्मी वोट शायद ही वो पहचान दिला पाता, जो आज है। लालू विरोध की लड़ाई और बीजेपी के साथ होने से नीतीश दूसरी जातियों में भी ग्राह्य हो गये, और एक राष्ट्रीय पहचान पा गये।

सत्ता में आने के कुछ वर्षों बाद नीतीश कुमार को अचानक इस बात का एहसास हुआ कि लालू का मुद्दा खत्म होने के साथ ही लालू विरोध का वोट बैंक दूसरी ओर जाने के लिए आजाद हो गया। तब उन्होने महादलित कार्ड खेला और साथ ही लालू के साथ रहे मुस्लिम वोट को अपने साथ लाने का मुहिम शुरु किया।

इसी दौरान रामविलास पासवान ने उनपर दलितों को विभाजित करने के आरोप भी लगाये। रही बात मुस्लिम वोट की..तो इसके लिए नीतीश को 2002 के गुजरात दंगें के केन्द्र बना दिए गये नरेन्द्र मोदी के विरोध से आसान रास्ता नजर नहीं आया। नीतीश ने नरेन्द्र मोदी कार्ड चलना शुरु कर दिया। मोदी के साथ कई बार गलबहियां कर चुके और बीजेपी के समर्थने से सरकार चला रहे नीतीश के लिए मोदी अचानक अछूत बन गये।

दरअसल, नीतीश की यही राजनीतिक चूक थी, जिसने उन्हें मुख्यमंत्री रहते हुए भी अप्रासंगिक बनाना शुरु कर दिया। बीजेपी के साथ विधानसभा में अपार बहुमत से शासन कर रहे, नीतीश की सरकार बीजेपी से अलग होकर अचानक निर्दलीय और दूसरों की वैशाखी पर आ गई। और नीतीश जब कमजोर पड़े, तो वो तमाम नेता जो सरकार की मजूबती (जो बीजेपी के समर्थने से थी), की वजह से जुबान बंद रखे थे, अचानक खुद को नीतीश से आजाद महसूस करने लगे।

जेडीयू में मची भगदड़, सामान्य चुनावी भगदड़ भर नहीं है। यह नीतीश के साथ होने से भविष्य डूबने की डर से पैदा हुई भगदड़ है। मोदी बनाम मोदी विरोध में बंटी राजनीति में नीतीश को कौन वोट देगा, यह चिंदा अब जेडीयू के नेताओं को सताने लगा है। बिहार में बीजेपी के विरोध में कौन होगा, यह अब तक तय नहीं है..और हाल तक साथ-साथ चले जेडीयू को यह जगह मिलेगा इसका शक पार्टी नेताओं को भी है।

बिहार की राजनीति अभी तीन हिस्सों में बंटी है- बीजेपी-लोजपा, आरजेडी-कांग्रेस और जेडीयू। सर्वे के मुताबिक प्रदेश में बीजेपी सबसे आगे चल रही है, यादव-मुस्लिम गठजोड़ के बुते 15 वर्षों तक शासन करने वाले लालू यदि कांग्रेस के समर्थन से यादव के साथ मुस्लिम वोट बरकरार रखने में सफल होते हैं तो नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू के लिए आगे का रास्ता मुश्किलों से भर जाएगा। 

Thursday, January 2, 2014

अंटार्कटिका पर फंसे जहाज में एक भारतवंशी भी



अंटार्कटिका पर दस फीट मोटी बर्फ में फंसे जहाज एमवी एकेडेमिक शोकालस्की पर एक भारतीय मूल के पत्रकार आलोक झा भी हैं। उनके साथ जहाज पर 73 और लोग फंसे हुए हैं।
गार्डियन के पत्रकार आलोक झा

आलोक ब्रिटिश अखबार गार्डियन के विज्ञान संवाददाता है। लंदन के इंपिरियल कॉलेज से फिजिक्स में स्नातक, आलोक साइंस विकली पॉडकास्ट भी प्रस्तुत करते हैं। वे गार्डिन के साथ 2003 से जुड़े हुए हैं जब इस पेपर ने अपना साइंस सप्लिमेंट 'लाईफ' निकालना शुरु किया। उन्होने कुछ किताबें भी लिखी हैं। 
 
फंसे जहाज से बर्फ को निहारता एक व्यक्ति
अपने ट्विटर अकाउंट @alokjha से वे लगातार जहाज के रेस्क्यू ऑपरेशन के बारे में लेटेस्ट जानकारी दे रहे हैं। पिछले सात दिनो से फंसे इस जहाज को निकालने के सार प्रयास अब तक असफल हो चुके हैं। और अब लोगों को हैलिकॉप्टर से रेस्क्यू करने का प्रयास किया जा रहा है।

Wednesday, December 25, 2013

सरस क्षेत्र मिथिलांचल थीक




मिथिलांचल के एक बड़े विद्वान प्रो. राधाकृष्ण चौधरी ने 1970 में प्रकाशित अपनी किताब 'हिस्ट्री ऑफ मुस्लिम रूल इन तिरहूत' में लिखा था "मिथिला शायद एक मात्र ऐसा क्षेत्र है जो आर्यन सभ्यता के समय से अब तक अपनी सांस्कृतिक निरंतरता को बनाये रखा है।"



मां सीता की यह धरती सुख, शांति और समृद्धि का प्रतीक रही है। अपनी भाषा-- मैथिली, अपनी लिपि– मिथिलाक्षर और जीवन जीने का अपना एक ढ़ंग-- मिथिलांचल की पहचान है। यहां के बारे में कहा जाता है 


पग-पग पोखर माछ मखान,

सरस मधुर मुस्की मुख पान,

विद्या, वैभव शांति प्रतीक,

सरस क्षेत्र मिथिलांचल थीक। 
 

मिथिलांचल में कदम-कदम पर मिलने वाला पोखर (तालाब) और इसमें होनेवाले माछ (मछली) और मखान यहां की अर्थव्यवस्था की रीढ़ रहा है। बरसात के समय में पानी से लबालब भरे तालाब, साल के दूसरे हिस्सों में खेती के लिए पानी उपलब्ध कराते हैं। इसके साथ तालाब में होनेवाले मछली और मखान की खेती से किसानो को नगद आय की आमदनी होती है।



चेहरे पर मौजूद मुस्कान लोगों की संपन्नता और उनकी आध्यात्मिक सोच को दर्शाते हैं। इस क्षेत्र ने एक से एक विद्वान पैदा किये हैं। कवि विद्यापति इसी धरती पर प्रकट हुए थे। कहा जाता है कि भगवान शंकउनकी भक्ति से इतने प्रसन्न हुए कि खुद विद्यापति के घर सेवक के रुप में निवास करना स्वीकार किया। 
 

आदि शंकराचार्य को मिथिलांचल में ही मंडन मिश्र के हाथों शास्त्रार्थ में पराजय झेलना पड़ा था। दर्शन के प्रकांड विद्वान मंडन मिश्र को आदि शंकराचार्य ने बाद में अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। कहा जाता है कि उन दिनो मंडन मिश्र के गांव महिषी में इतने शास्त्रार्थ होते थे कि पक्षी भी संस्कृत में ही बात करते थे। एक-से-बढ़कर एक साहित्यकार इस क्षेत्र ने दिए। बाबा नागार्जुन, फणीश्वरनाथ रेणु जैसे कई नामचीन हस्तियों ने मिथिला गौरव का मान बढ़ाया।



मिथिला या मधुबनी पेंटिंग इस क्षेत्र की अपनी प्राचीन चित्रकला है जिसे दुनियां भर में पहचान हासिल है। इस पेंटिंग की प्रसिद्धि का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जापान में एक बहुत बड़ा संग्रहालय इस के नाम पर बना हुआ है। भित्ती चित्र और अरिपन मधुबनी पेंटिंग के दो प्रकार हैं। आंगन में या चौखट के सामने बननेवाला अरिपन अलग खुबसूरती रखता है। रंगों से भरे अरिपन के माध्यम से उपयोग में आनेवाले वस्तुओं को दर्शाया जाता है। 
 

सालों भर यहां एक के बाद एक ढ़ेर सारे पर्व त्योहार मनाए जाते हैं। ये पर्व त्योहार लोगों को सकारात्मक ऊर्जा से भरते हैं। सामा-चकेवा भाई-बहनों के बीच के स्नेह को दर्शानेवाला एक विशिष्ट त्योहार है जिसे मिथिलांचल में बड़े धूमधाम से परंपरागत रुप में मनाया जाता है। भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब और पुत्री साम्बा के स्नेह को दर्शाते इस त्योहार में सामा-चकेवा, चुगला,सतभैंया जैसे मिट्टी के पात्र होते हैं। पन्द्रह दिनो तक चलने वाला त्योहार जब कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि में पूर्ण होने को आता है, इसे मनाने वाली महिलाएं भाई-बहन के स्नेह को याद कर खुद को भावुक होने से रोक नहीं पातीं।



मधुबनी जिले में अवस्थिल सौराठ ग्राम मिथिलांचल की एक खास पहचान है, जहां प्रत्येक वर्ष एक विशेष समय पर विवाह योग्य युवक अपने अभिभावक के साथ इकट्ठे होते हैं। कन्यापक्ष के लोग अपनी कन्या के लिए यहां वर पसंद करते हैं और फिर विवाह तय करते हैं। हालाकि सौराठ सभा के नाम से प्रसिद्ध यह मेला अब आधुनिकता की भेंट चढ़ चुका है। 14वीं शताब्दी में ही यहां शादियों के पंजीकरण की प्रथा शुरु हो गई थी। पंजीकारों के पास सैकड़ों वर्ष पूर्व हुई शादियों की जानकारियां उपलब्ध हैं। अन्य क्षेत्रों और परंपराओं में जहां शादी से जुड़ी सारे विधि-विधान महज एक-दो हफ्ते में पूरे हो जाते हैं, वहीं मिथिलांचल में शादी-व्याह के रीति-रिवाज वर्षपर्यन्त जारी रहते हैं। शादी में शामिल होने आये मेहमानों की खातिरदारी तो कोई यहां सीखे। यह क्षेत्र सदियों से मेहमानवाजी के लिए सुख्यात रहा है।



पश्चिम की भोगवादी संस्कृति से देश का हर क्षेत्र प्रभावित हुआ है, मिथिलांचल भी अछूता नहीं है। लेकिन इसकी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान और विविधता आज भी इसे एक अलग स्थान प्रदान करती है। भौगोलिक दृष्टि से छोटे से भू-भाग में अवस्थित मिथिलांचल के लोग दुनिया भर में फैले हुए हैं। लेकिन अपनी माटी से हजारो किलोमीटर दूर रहने के बावजूद वे अपनी परंपराओं और मिट्टी की खुशबू को संजोये हुए हैं। उनके दिलों में एक लधु मिथिलांचल समग्रता में पूरी परंपरा के साथ निवास करता है।






Wednesday, December 18, 2013

कांग्रेस की हार जनता का मजाक बनाने वाले दलों के लिए एक सबक

गलथेथरई कर अरनब गोस्वामी या रविश कुमार के टीवी शो का डिबेट जीता जा सकता है चुनाव नहीं । राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ और दिल्ली में आए विधानसभा के चुनाव परिणामों ने इसे साबित कर दिया है। यह बीजेपी की जीत है, 'आप' की जीत है ,लेकिन इन सबसे अधिक अधिक यह कांग्रेस की हार है।
 
यूपीए दो की सरकार में एक से बढकर एक घोटाले हुए। लेकिन कांग्रेस के नेता नीरो की तरह चैन की बांसुरी बजा रहे थे, वे कुछ इस अंदाज में हंस रहे थे जैसे , 'हाथी चले बाजार तो कुत्ता भूंके हजार'। लोग चिल्ला रहे थे, लेकिन सरकार और कांग्रेस पार्टी अपना सारा दम भ्रष्टाचारियों को बचाने में लगा रही थी। कांग्रेस को भ्रष्टाचारियों को बचाते देख, जनता नें उनकी बैंड बजाने का फैसला कर लिया।

महंगाई कई गुणा बढ़ गई, कांग्रेस के नेता इसका दोष विरोधी पार्टी की सरकार वाले राज्यो के मत्थे मढ़ अपनी जिम्मेदारियों से मुंह चुराते रहे। डीजल, पेट्रोल, एलपीजी के दाम बढ़ गये। लेकिन सरकार अर्थव्यवस्था सुधारने के नाम पर गरीबों के घर में चूल्हों की आग बुझाने में लगी रही। हम बातचीत में संदर्भ देते हैं "हाथ घुमा कर नाक छुना"। एलपीजी सब्सिडी का मसला भी ऐसा ही हो गया। 
केवल लोगो को यह जताने के लिए कि केन्द्र की सरकार जो सब्सिडी दे रही है जनता को उसका ऐहसास हो, कांग्रेस ने सब्सिडी को बैंक अकाउंट में डालने का फैसला कर लिया। फायदा तो नहीं मिला लोगों का झंझट और बढ़ गया, आधार कार्ड बनबाओ, फिर इसे बैंक से कनेक्ट करना और फिर बैंक और गैस कनेक्शन को जोड़ना। नौकरीपेशा लोगों के लिए जिन्हें एक दिन भी छुट्टी लेना भारी पड़ता है, दो से तीन दिन केवल इसके लिए देने पड़े। फायदा क्या होना, ढ़ाक के तीन पात। कांग्रेस अगर जनता की समस्या बढ़ाएगी तो जनता छोड़ेगी कैसे। चुनावी परिणामों ने कांग्रेस में खलबली मजा दी है। सोनियां-राहुल के खिलाफ भी विरोध के स्वर उठ खड़े हुए हैं।

आपने एक बात पर ध्यान दिया ? "आम जनता को फ्री में अनाज नहीं चाहिए।" ऐसा मैं नहीं छत्तीगढ़ विधानसभा का चुनावी नतीजा बता रहा है। कांग्रेस ने राज्य की जनता से सरकार में आने पर मुफ्त में अनाज देने का वायदा किया था। लेकिन फिर भी जीत बीजेपी की हुई। आम जनता कांग्रेस से इस हद तक नाराज है कि 1) सत्ता विरोधी लहर 2) परिवर्तन यात्रा पर हुए हमले से उपजी सहानुभूति और 3) मुफ्त अनाज के वायदे के बाद भी, जनता नें रमन सिंह को फिर से मौका देना पसंद किया। हालात बदलो तुष्टिकरण मत करो। शायद जनता यही कांग्रेस को सिखाना चाह रही है।

जिस मनरेगा का ढ़ोल कांग्रेस पीट रही है, उसकी हकीकत इतनी भर है कि अगर मनरेगा का मजदूरी 100 रुपये है तो मजदूर और सरकारी आदमी बिना किसी काम के मजदूरी का आधा-आधा हिस्सा बांट लेता है। मजदूर को बिना काम किए ताड़ी पीने का पैसा मिल गया और सरकारी अधिकारियों के जेब भी भर गये। यह मनरेगा की हकीकत है।

अलग-अलग राज्यों के अलग-अलग मुद्दे होते हैं, लेकिन इस बार के चुनाव में राज्यों के मुद्दे कम नजर आए। एक सामान्य राष्ट्रीय मामले विधानसभा चुनाव में हावी रहे। इसे कांग्रेस सरकारों की असफलता कह लें या नरेन्द्र मोदी की जीत, विधानसभा चुनाव इस बार राष्ट्रीय मुद्दों पर ही लड़ा गया।

ऐसा नहीं था कि मध्यप्रदेश की चौहान सरकार की तुलना में राजस्थान में गहलोत की सरकार ने कम काम किये हों। दिल्ली में रहनेवाले कहते हैं कि शीला दीक्षित की सरकार का काम भी बहुत बुरा नहीं था। लेकिन जनता ने गर्दन पर हाथ रख गहलोत और शाली सरकार को हटाया तो इसकी सबसे बड़ी वजह यही थी कि ये चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर केन्द्रित थे। महंगाई, भ्रष्टाचार जैसे आम लोगों के मुद्दों पर पर कांग्रेसी नेताओं की 'नीरों' बननेवाली प्रवित्ति ने कांग्रेस सरकार के खिलाफ सभी जगहों पर एक सा लहर पैदा कर दिया। केन्द्र की यूपीए सरकार ने जो पाप पांच साल पास किये है उसका प्रायश्चित तो कांग्रेस की सभी सरकारों --राज्य हो या केन्द्र-- को करना ही होगा। उन्हें इतनी सी बात समझ में नहीं आई कि जनता सब जानती है।

पीएस : कोई भी सरकार या पार्टी जनता को मुर्ख समझने की कोशिश ना करें। जब तक आप पकड़े नहीं गये तभी तक आप बचे हैं । नेताओं को किनारे करने के लिए कुछ खास नहीं करना है ,बस उनके नाम के सामने के बटन को ना दबाकर दूसरे के सामने का बटन को दबाना है। और अब यह मजबूरी भी खत्म होती ही जा रही है कि किसी ना किसी को चुनना ही हो। अब एक 'नोटा' बटन भी आ गया है। अगर सारे प्रत्याशी खराब हैं तो नोटा दबाओ और उनको भगाओ।

Friday, December 13, 2013

कांग्रेस की हार जनता का मजाक बनाने वाले दलों के लिए एक सबक


गलथेथरई कर अरनब गोस्वामी या रविश कुमार के टीवी शो का डिबेट जीता जा सकता है चुनाव नहीं । राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ और दिल्ली में आए विधानसभा के चुनाव परिणामों ने इसे साबित कर दिया है। यह बीजेपी की जीत है, 'आप' की जीत है ,लेकिन इन सबसे अधिक अधिक यह कांग्रेस की हार है।


Saturday, October 5, 2013

सुंदरता

सुंदरता

वो बहुत सुंदर थी,
पता नहीं उसे यह,
पता था या नही..

तभी किसी ने उसे
(और) सुंदर होने का उपाय बताया...

अब उसके कपड़े घटते जा रहे थे
चेहरे पर मेक-अप  बढ़ते जा रहे थे।

किसी ने उसे नंगई को सुंदरता समझा दिया था

Wednesday, October 2, 2013

यह भी संभव है

इधर के वर्षों में बिहार की राजनीति का दो सबसे बड़ा उलटफेर -- नितीश का बीजेपी से सम्बन्ध तोड़ना और लालू यादव के जेल जाने को माना जा सकता है। इन दोनो घटनाओं ने बिहार की राजनीतिक परिस्थितियों को कुछ ऐसा बदला है कि बड़े बड़े विश्लेषक भी कुछ साफ नहीं कह पा रहे हैं।


बहरहाल आइए देखते हैं क्या है बिहार की राजनीति की उलझनें । कौन से पेंच हैं जिसे विश्लेषक भी नहीं समझ पा रहे हैं

नितीश धीरे-धीरे कांग्रेस के नजदीक जाते दिख रहे हैं, ये अलग बात है कि जेडीयू अध्यक्ष शरद यादव कांग्रेस विरोध का झंडा उतनी ही मजबूती से थामे हुए हैं।

पिछले चुनाव तक करारी हार के बाद भी लालू का एमवाई समीकरण कहीं दरकता नहीं लगा था, केवल विरोधी मत बीजेपी-जेडीयू की तरफ एक तरफा चली गई।

क्या करेंगे मुसलमान : पिछले दो दशकों से लालू यादव मुसलमानों का वोट एकतरफा पाते रहे हैं। लेकिन अब बदली हुई परीस्थितयों में वे लालू के साथ बने रहेंगे, यह एक बड़ा सबाल है। दोस्त से दुश्मन बने लालू और नितीश की पार्टी अगर इसी वोट के लिए राज्य में उलझते दिखे तो बड़ी बात नहीं होगी। 
 
नरेन्द्र मोदी के नाम पर नितीश बीजेपी के साथ अपने 17 साल पूराने संबंधों को तिलांजली दे चुके हैं। इधर कांग्रेस भी लालू से दूरी बना रही है, राहुल गांधी दागी नेताओं को बचानेवाले अध्यादेश को फाड़ने की बात से यह जता चुके हैं। लालू यादव के जेल जाने के बाद कांग्रेसी नेताओं के बयान से भी यह लगता है कि कांग्रेस का ऑफिशियल लाइन अब लालू से दूरी बनाना है।

वहीं नीतीश कुमार का कांग्रेस से बढ़ता नयन मटक्का भी अब छिपा हुआ नहीं है। आनेवाले चुनाव में जबकि नरेन्द्र मोदी के मुकाबले लालू यादव को कमजोर पड़ता देख, मुसलमान कांग्रेस को मजबूत करने के लिए नितीश कुमार का हाथ थाम सकते हैं।

राजद का समीकरण : लालू आज भी यादवों के नीर्विवाद नेता है। यादव वोट लालू की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल से दूर हो जाए, इसकी संभावना नगण्य ही है। लेकिन केन्द्र की बदलती राजनीति की वजह से लालू यादव की पार्टी राजद को मुस्लिम वोटों का नुकसान उठाना पड़ सकता है। 'एमवाई' में से 'एम' के छिटकने से राजद को बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है। 
 
इसके पास रघुवंश प्रसाद सिंह, प्रभुनाथ सिहं, जगदानंद सिंह जैसे अगड़ी जातियों के नेता तो हैं लेकिन इनका नाम राजद को इनके प्रभावक्षेत्र से अलग इलाकों में कोई फायदा पहुंचा दे इसकी संभावना कम ही है।

रामविलास पासवान : लालू के साथ अभी तो खड़े हैं रामविलास पासवान लेकिन जिस तरह का उनका रिकॉर्ड रहा है और जिस तरह से ये अपने पुत्र को अपनी विरासत का हस्तांतरण करने में व्यस्त हैं, कब यह लालू का साथ छोड़ दें कुछ कहा नहीं जा सकता। एक अच्छा मौका इनके सामने आने दीजिए, रामविलास पासवान का स्टैंड साफ हो जाएगा।

सिर्फ अपने पेटेंट समर्थक जाति के बल पर चुनाव नहीं जीता जा सकता है, यह बात रामविलास अब समझ चुके हैं इसलिए इनका जोड़ इस बात पर रहेगा कि किसी मजबूत पार्टी के साथ समीकरण बन जाए। इनके दलित वोटों में सेंध लगाने के लिए नितीश जहां महादलित राजनीति पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं, वहीं एक मायावति फैक्टर भी है।

 बीएसपी प्रत्येक अगले चुनाव में अपना वोट प्रतिशत बढ़ाते जा रही है। रामविलास, नितीश को मायावति के बढ़ते वोट प्रतिशत का नुकसान हो सकता है।

नीतीश कुमार : संकट की घड़ी नितीश कुमार के लिए है। पार्टी सत्ता में है, इसे सत्ता में बनाए रखना बड़ी चुनौती है। जिस तरह से अपने साथियों को नितीश ने एक-एक कर ठिकाने लगाया उसका असर आने वाले समय में देखा जा सकता है। बीजेपी से अलग होने पर पार्टी में कैसी झुंझलाहट थी इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि नितीश को धर्मनिर्पेक्ष राजनीति का प्रतीक बनाने का प्रयास करने वाले शिवानंद तिवारी को पार्टी ने तुरत बाद अलग-थलग कर दिया। अब बेचारे को कोई पूछता भी नहीं। आपको याद हो कि यह शिवानंद तिवारी ही थे जिन्होने जेडीयू और बीजेपी के बीच खाई बनाने का काम किया।

जाति पर आधारित बिहार की राजनीति में नितीश कुमार के पास किसी विशेष जाति समूह का समर्थन नहीं है। बिहार में लालू के समय से बीजेपी विपक्षी ताकत का प्रतीक रही थी। लालू से अलग होने के बाद नितीश-जॉर्ज की जोड़ी संघर्ष तो कर रही थी लेकिन लालू को असली टक्कड़ बीजेपी से मिलता था।

बहरहाल केन्द्र में शासन करने की गरज से बीजेपी ने नितीश को आगे कर दिया। लालू की नौटंकियों से त्रस्त अगड़ी जातियां और मध्यम वर्ग के लोग बीजेपी के मार्फद बीजेपी-जेडीयू में ट्रान्सफर हो गया। नितीश के दरबारियों ने इसे जेडीयू का पॉकेट वोट बैंक करार दे दिया। इससे किसी को इनकार नहीं होना चाहिए कि नितीश ने बदलाव लाया है। लेकिन आम जनता बेहतर चाहती है और कोई जरुरी नहीं कि इसके लिए वो एक पार्टी के पीछे हमेशा खड़ी रहे। यह लालू विरोध की हवा, जातियों का समीकरण और कुछ नितीश के कार्य भी थे जिससे एनडीए गठबंधन और मजबूत होता चला गया। 
 
अब जबकि बीजेपी सरकार से अलग हो गइ है, नितीश कुमार को अगड़ी जातियां, मध्यमवर्ग, आदि का वोट खोने का डर सता रहा है। वे कुर्मी, कोइरी, और मुसलमान वोट को अपना कह सकते हैं जिसके लिए कई वर्षों से कोशिश करते रहे हैं। हां महादलित वोट जिसके लिए वो सत्ता में आने के बाद से ही लगातार प्रयास कर रहे हैं, कितना उनके साथ खड़ा होता है यह देखने की बात होगी। 
 
कांग्रेस : पिछले कई चुनावों की तरह बिहार में कांग्रेस एक बार फिर पाने-खोने के मायाजाल से ऊपर है। पार्टी के पास खोने के लिए राज्य में कुछ नहीं है, अपने दम पर कुछ पा ले इसकी भी संभावना भी कम है। ऐसे में पार्टी नितीश पर दांव लगा सकती है कि कम-से-कम जरुरत पड़ने पर नितीश के सांसदों का सहयोग केन्द्र में लिया जा सके। यह बात दीगर है कि नितीश के सांसद आने वाले समय में शायद ही नितीश की सुने। क्योंकि नितीश ने जिस तरह से पार्टी और सरकार को मनमाने तरीके से चलाया उससे जेडीयू सांसद बहुत खुश नहीं है। आनेवाले समय में अगर एनडीए की तरफ कुछ संभावना बनती है तो कोई आश्चर्य नहीं अगर नितीश के सांसद शरद के साथ फिर से एनडीए में जा मिलें।